"पाखी सुनो! प्लीज किसी से कुछ कहना मत बेटा!"
पाखी दिल में जैसे सागर भर की तूफानी लहरों को समेटे हुए घर आ गई। खाना भी नहीं खाया। माँ को पहले लगा शायद सहेलियों से लड़ कर आई होगी पर रात को कमरे से आती सिसकियों ने उन्हें मजबूर किया किया कि वो पूछें की आखिर बात क्या है?
"पाखी! क्या हुआ बेटा किसी ने कुछ कहा क्या?"
पाखी ने माँ की गोद में सर रखकर उदास स्वर में कहा
"माँ! मान लो कभी मै दुनिया से चली गई तो क्या आप रह जाओगे मेरे बिना?"
माँ ने तुरंत हल्की चपत लगाई।
"कैसी बहकी बहकी बाते कर रही है.. बताएगी हुआ क्या है? देख कोई परेशानी है तो खुल कर बता"
"माँ! मुझे पता है आप नहीं रह पाओगे.. पर.. पर.. आशा मैम तो नॉर्मल सी रोज आती है.. वो इतना दर्द अपने अंदर कैसे बर्दाश्त कर पाती है.. मेरा तो आपसे दूर जाने सोच कर ही दिल बैठ गया माँ।"
इससे ज्यादा पाखी कुछ ना कह पाई। फफक फफक कर काफी देर रोते रही फिर माँ की गोद में ही सो गई।
अगले दिन पाखी को हल्का बुखार था तो वह देर से उठी। कॉलेज का टाइम निकल चुका था। पाखी दोपहर का खाना खाके फिर सो गई। माँ के कहने पर घरवालों ने ना ही परेशान किया ना ही कुछ पूछा। उसके अगले दिन पाखी थोड़ा अच्छा महसुस कर रही थी पर उसे आशा मैम की चिंता थी। पता नहीं वो क्या सोच रही होंगी?
लेट हो चुकी पाखी को कॉलेज अकेले ही जाना पड़ा। कॉलेज में घुसते ही पाखी को माहौल कुछ ठीक नहीं लगा। सब आपस में भीड़ कर खुसर फुसर कर रहे थे।
पाखी ने अपनी सहेलियों का रुख किया।
"हुआ क्या है शीतल?"
"पाखी पूछ मत! तूझे पता है आशा मैम की बेटी ने सूसाइड कर लिया है.. कल पता चला सब को!"
पाखी का दिमाग सन्न हो गया।
ये सब क्या हो गया? बातों का ऊलजलूल फैलाव कैसे हुआ?
"शीतल!.. मुझे मैम से मिलना है"
"तूझे क्या लगता है वो आएंगी आज सबका सामना करने? उन्होंने तो इस्तीफा दे दिया है।"
तभी सामने से चपरासी ने आकर पूछा "आप में से पाखी कौन है?"
पाखी आगे आई तो उसने एक लिफाफा हाथ में थमा दिया।
"ये हिंदी मैडम ने आपके लिए छोड़ा है.. मैं कल से लेकर घूम रहा हूं"
पाखी ने एक कोने में जाकर फटाफट लिफाफा खोला। उसमे एक छोटा कागज का टुकड़ा था जिसपर लिखा था
"पाखी तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। मैं भूल गई थी कि नाम एक होने से तुम मेरी बेटी नहीं हो सकती। मैं तो हमेशा से गलत ही रहीं हूं।"
पाखी धम्म से वहीं बैठ गई। उसने क्या किया? उसने तो किसी से कुछ नहीं कहा.. सिर्फ माँ.. माँ? माँ ने किसी से कुछ?
पाखी तुरंत घर वापस आ गई।
"अरे बेटा! आज इतनी जल्दी? तबीयत ठीक नहीं क्या?"
"माँ आपने किसी से कुछ कहा क्या आशा मैम वाली बात ?"
"बेटा! इतनी बड़ी बात थी.. जान कर भी शोक ना जताना कहाँ की इंसानियत होती भला? उनकी ननद हमारी पड़ोसी है। क्या कहती वो बाद में की पता होते हुए भी अफसोस जाहिर करने नहीं आई "
"पर माँ वो नहीं बताना चाहती थीं किसी को.. बहुत विश्वास से बताया था उन्होंने मुझे "
"तू चुप कर! तू नहीं बताती, मैं नहीं बताती.. ऐसी बाते छिपती है भला किसी से? कैसी माँ हैं वह जो अपनी औलाद के मरने के बाद भी नॉर्मल रहकर जी रही थीं.. कलेजा ना फटा उनका भला? तू नहीं समझेगी अभी यह सब बातें, बच्ची है अभी तू। मैंने बस अपना पड़ोसी धर्म निभाया। समाज में रहते है तो सोशली अपडेट रहना पड़ता है।"
पाखी स्तब्ध थी। क्या कहे? उसने अपनी प्यारी मैम को खो दिया था। माँ की बाते कानो में गूंज रही थी। "तू नहीं समझेगी".. हाँ नहीं समझना है यह सब, ना ही बड़ा होना ऐसे समाज में। कोर्स- किताबों में बचपन से जिसे चुगली करना बताया गया उसे आज सब सोशली अपडेट होना मानते है। किसी खबर को परखें जांचे बिना सबसे पहले कौन दुनिया के सामने रखता है इसकी होड़ मची हुई है। नहीं समझते सब की इसका किसी की जिंदगी पर क्या असर पड़ेगा? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने ऐसा माहौल बना दिया है जहां सब इस डर से की दुनिया क्या कहेगी अपने गम के समन्दर को अंदर ही बाँध घूमते है। अब वो अपनी मैम से शायद कभी नजरे नहीं मिला पाएगी। काश ख़बर वाली चिड़िया उसकी आशा मैम से जाकर यह कह पाती की मुझे माफ कर दो प्लीज!
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