छपाक!!
और कीचड़ से सने पानी ने कुणाल के सफेद शर्ट पर कब्जा कर लिया। गुस्से से उसका मिजाज तमतमा गया। वह यकायक चार कदम पीछे हो लिया।
कुणाल जो बस स्टॉप पर खड़ा था। उसे नहीं पता कि वह बस का इन्तेज़ार कर रहा था या ये उम्मीद की काश बस आए ही ना। तो क्या यह कीचड़ कोई इशारा है? फिर गुस्सा क्यों आया भला.. ओह ये तो सफेद शर्ट के लिए है जो माँ ने प्यार से जन्मदिन पर दी थी। शर्ट से ध्यान हटकर कीचड़ की तरफ और फिर नजर उन बच्चों की तरफ जो ये गुल खिला रहे थे। कुणाल ने देखा पास ही झुग्गी के बच्चे बस स्टॉप के पास सरकार द्वारा प्रदत्त गड्ढे में जमे बारिश के पानी में कूद रहे थे।
" बारिश आई छम - छम - छम
छाता लेकर निकले हम
फिसल गया पैर गिर गए हम
नीचे छाता उपर हम "
बच्चे जो गा रहे थे फिर बारी बारी जानबूझ कर गिर रहे थे। कुणाल के चेहरे पर अब मुस्कान तैर गई और गुस्सा छू होता गया। उसे याद आया वह इतना गुस्सैल पहले नहीं था। ऐसा ही तो था वो हँसते, कूदते, कुलांचे मारते घूमता रहता था। माँ कहती थी कि इस लड़के के पांव में तो चकरी बंधे है, घूमता रहता है। कितना हसीन था वह समय, कॉलेज के दोस्तों के साथ आए दिन ट्रिप पर निकल जाना, फोटोग्राफी करना। माँ को पता था फोटोग्राफी में जान बसती थी उसकी। तभी तो जिद करके पापा से अठारहवें जन्मदिन पर प्रोफेशनल कैमरा दिलवाया था। पापा गुस्सा भी हुए थे कि यही पैसे पढ़ाई में खर्च होते तो उसका वसूल होता, शौक पर कौन खर्च करता है इतना? पर माँ तो माँ थी। पर अब माँ नहीं है। सब कुछ बदल गया है। पापा ने तो कुणाल को साफ साफ कह दिया कि पढ़ाई खत्म कर के कोई काम धाम देख लो।
मध्यमवर्गीय परिवार अपने ख्वाबों का साइज भी मध्यम ही रखते है। बच्चे की पढ़ाई, बेटी की शादी और बुढ़ापे की बीमारी के लिए जतन करते करते भूल ही जाते है कि जिंदगी इसके अलावा भी है।
कुणाल ने समझौता कर लिया था। वैसे भी माँ नहीं रही और उनके साथ ही जैसे घर की सारी रौनक चली गई। बड़ी दीदी अब शांत रहती थी। ससुराल नजदीक था उनका तो आते जाते रहतीं थी। उन्होंने घर के लिए मेड रखवा दी थी। कुणाल ने कई बार सोचा इस शहर से दूर जाकर कुछ करे , अब मन नहीं लगता यहां फिर दिल कहता था कि कहीं पापा को भी कुछ हो गया तो उसका परिवार खत्म हो जाएगा। उसने तय किया कि क्यों ना पापा की खुशी के हिसाब से ही काम किया जाए। सच ही तो कहते है पापा पेट भरा हो तो बाकी चीजें भी अच्छी लगती है। पर हकीकत ये थी कि कुणाल ने पापा की सुनते - सुनते अपने दिल की सुनना तो कब का छोड़ दिया था।
कुणाल ने सोचा था कि पढ़ाई खत्म कर के फोटोग्राफी का कोई एक्स्ट्रा कोर्स कर लेगा तो पापा ने हाथ जोड़ दिए थे।
" बेटा कोई नौकरी देख ले बाकी जो करना हो नौकरी के साथ साथ करना।"
ये बात सिर्फ पापा बोलते तो चलती पर दिव्या भी?
दिव्या कुणाल के बचपन की दोस्त थी और अब हमराज़ से हमराही बनने की राह में आगे बढ़ रही थी। बचपन से ही पढ़ने में होशियार दिव्या मास कम्युनिकेशन कि पढ़ाई कर एक न्यूज चैनल में रिपोर्टर के तौर पर काम कर रही थी। दिव्या ने भी कुणाल को यही कहा कि तुम कोई नौकरी देख लो ताकि मम्मी पापा से शादी की बात कर सकूं। उसने भी कई बार कोशिश की पर बिना प्रोफेशनल फोटोग्राफी के कोर्स के बिना वहाँ उसके साथ काम करना मुश्किल था। वैसे भी कुणाल को स्वच्छंद घूमना और फोटोग्राफी करना पसंद था ना कि गली गली माइक के पीछे घूमने का मन था। गलियां.. हाँ गलियों से याद आया कि कभी इन्हीं गलियों से उसे कितना प्यार था.. खासकर बारिश के मौसम में कागज की नाव चलाना। दीदी की नोटबुक फाड़ फाड़ कर नावें बनाता और गड्ढों में चलाता नालों में चलाता.. फिर पीछे पीछे भागता की वो कहाँ तक जाती है? डूबती हुई नावें उसे अच्छी नहीं लगती इसलिए हाथों हाथ दूसरी नाव तैयार रखता था। पर आज.. आज उसके पास जैसे कोई दूसरी नाव है ही नहीं। कुछ बड़ा करना चाहता था वह पर इस नौ से सात की नौकरी में फंस कर रह गया है।
रोज बस स्टॉप पर आता तो उसके साथ एक त्यागपत्र होता है। रोज सोचता कि आज सब कुछ छोड़ छाड़ दूँगा। फिर बॉस को देखता तो पापा याद आते और कुछ नहीं करता।
आज इन बच्चों को खेलते देख उसे भी ख्याल आया कि कितनी छोटी छोटी खुशियो के सहारे बचपन कट जाता है फिर बड़े होने में ऐसा क्या है कि हर चीज़ मन मुताबिक ना हो तो इंसान इतना परेशान हो जाता है? क्यों उसे अब यह ख्याल नहीं आता कि डूबती नाव के बदले दूसरी नाव तैयार रखा जाए ना कि डूबने के डर से पानी में नाव उतारा ही ना जाए। ऐसा भी क्या बुरा था इस नौकरी में? उसे तो इतनी आजादी भी थी कि घर से काम करके प्रोजेक्ट सबमिट कर सकता है, और सच यह है कि रात भर जाग कर वो कर भी देता है फिर ऑफिस क्यों दौड़ा चला आता है। सिर्फ खुद को बिजी रखने के लिए? पर खुद को परेशान करने के अलावा कुछ नहीं मिला उसे अपनी इस हरकत से।
परिस्थितियों को हँसी खुशी भी स्वीकार कर सकता था पर उसने क्या किया.. उलझा दी अपनी जिंदगी को।
ख्यालों के भंवर से निकला तो देखा लोग बस स्टॉप के भीतर बढ़ने लगे थे शायद सबको बस आने की ख़बर मिल गई थी । बाहर बारिश तेज हो चली और बच्चे भी बस स्टॉप के अंदर आकर छुप गए थे। कुणाल मुस्कुराया और बैग से एक कागज निकाला और उसकी नाव बना कर उन बच्चों को दे दी। हाँ ये वही त्याग पत्र वाला काग़ज़ था जो उसके मन का बोझ बन कर बैठा था। आज उसकी भी रिहाई हो गई। उसने फोन निकाला और ऑफिस फोन लगाया
" सर! मैं सोच रहा था वर्क फ्रॉम होम कर लूं.. वैसे भी आने जाने में फालतू समय जाता है "
स्वीकृति पा कर एक फोन और लगाया
" हैलो दिव्या! तुम्हारे कैमरा मैन को कोई अस्सिटेंट चाहिए हो तो बताना.. उसी बहाने तुम्हारे पास रहने का मौका मिल जाएगा "
दिव्या की चीख बता रही थी कि वो हमेशा से चाहती थी उसका सान्निध्य। आज माँ होती तो कितनी खुश होती। खुश होगी जरूर.. क्योंकि माँ कहीं नहीं जाती है, वो हमेशा साथ होती है।
" चलो मम्मा! पहले ये शर्ट धो लूँ और तुलसी वाली चाय पी लूँ वर्ना तुम नाराज हो जाओगी ना "
कहकर कुणाल घर की तरफ मुड़ गया। उसका घर जहां उसका परिवार है, उसकी खुशियां है। बारिश के साथ साथ बह गया मन पर पड़ा कीचड़ एक ही बार में। बच्चों की तरह कीचड़ में पैर छ्पछपाते हुए कुणाल फिर से बचपन वाला कुणाल था।
©सुषमा तिवारी
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Bilkul Sahi baat. Isliye Mai khud me sada ek bachha zinda rakhti hu, beshak Uske liye Kisi k taane mile ya fir hansi... I don't care
बहुत ही अच्छा लगा अंत तक कथा पढ़कर
Enjoyed reading 😊
Kya baat sarthak sandesh deti kahani
Thank you @poonam Garg
@kumarsandeep thank you भाई
Thanks Sonia
Thanks Avanti
Superb 👌
Acchi। h kahani
भावप्रवण कहानी
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