शहीद मंगल पांडे

कुछ याद उन्हें भी कर ले जो लौट कर घर ना आए

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Sushma Tiwari
Sushma Tiwari 02 Sep, 2019 | 1 min read

शहीद मंगल पांडे का जन्म 30 जनवरी 1831 ईस्वी को नगवा गांव जिला बलिया उत्तर प्रदेश तत्कालीन संयुक्त प्रांत में हुआ था। उनके पिता का नाम दिवाकर पांडे और माता का नाम श्रीमती अभय रानी था। वह एक सामान्य ब्राह्मण परिवार में जन्म लिए थे। जिसके फलस्वरूप परिवार में आर्थिक मजबूरी के चलते 22 वर्ष की अवस्था में वे ब्रिटिश सेना में शामिल हो गए थे।वह ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत 34 वी बंगाल इन्फेंट्री बटालियन के पैदल सेना में एक सिपाही थे। उस समय वे बैरकपुर छावनी में कार्यरत थे ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा धर्मांतरण की नीति को बढ़ावा देने तथा देशी राज्यों रियासतों को हड़पने के कारण लोगों में सरकार के विरुद्ध नफरत पैदा हो गई थी। उसी समय सेना में इनफील्ड p53 राइफल में नई कारतूसों का इस्तेमाल शुरू हुआ था। उस कारतूस को बंदूक में डालने के पहले उसे मुंह से खोलना पड़ता था जब सेना में यह खबर आग में घी की तरफ फैल गई कि उस कारतूस में गाय तथा सूअर की चर्बी का इस्तेमाल हुआ है तो मामला और बिगड़ गया। यह काम हिंदू तथा मुसलमान दोनों के लिए नापाक था। भारतीय सेना में सैनिकों के बीच भेदभाव से सैनिक पहले ही नाराज थे। 9 फरवरी1857 ई को कारतूस बांटा गया तो मंगल पांडे ने लेने से इंकार कर दिया। इसके दंड स्वरूप उनका राइफल छीनने तथा वर्दी उतारने का आदेश दिया गया। राइफल छीनने के लिए जैसे अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन आगे बढ़ा मंगल पांडे ने उस पर आक्रमण कर विद्रोह का बिगुल फूंक दिया तथा मेजर को अपने राइफल से मौत के घाट उतार दिया। उसके तुरंत बाद एक दूसरे अंग्रेज अफसर मेजर बाॅब को भी मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद उनको पकड़ लिया गया तथा उनका कोर्ट मार्शल द्वारा फांसी की सजा सुनाई गई। उन्हें बंगाल से मेरठ छावनी भेज दिया गया निर्धारित समय से 10 दिन पूर्व ही 8 अप्रैल 1957 को उन्हें फांसी दे दिया गया उनके फांसी के बाद में बगावत हो गई जो धीरे-धीरे पूरे उत्तर भारत में फैल गई। स्वतंत्रता संग्राम की पहली बगावत हुई जो 1947 तक शांत नहीं हुई। आज भी नौजवानों के चहेते एवं लोकप्रिय शहीद मंगल पांडे शहीद होने के बाद भी जिंदा है। भारत सरकार ने उनकी याद में 5 अक्टूबर 1984 ई को एक डाक टिकट भी जारी किया है।

शहीद खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 ई को हबीबपुर गांव जिला मिदनापुर (पश्चिम बंगाल) तत्कालीन बंगाल राज्य में हुआ था। उनके पिता का नाम त्रैलोक्य नाथ बोस तथा माता का नाम लक्ष्मी प्रिया देवी था। बचपन में ही माता पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उनका लालन-पालन तथा देखरेख बड़ी बहन ने किया। उनकी शिक्षा नवी कक्षा तक ही थी 1905 ईस्वी में बंगाल विभाजन के विरुद्ध शुरू हुआ स्वाधीनता आंदोलन में वे कूद पड़े। उन्होंने अपना क्रांतिकारी जीवन सत्येंद्र बोस के नेतृत्व में शुरू किया तथा बाद में रिवोल्यूशनरी पार्टी में शामिल हो गए।

28 फरवरी 1906 को पहली बार उन्होंने सोनार बांग्ला नामक इश्तिहार बांटते हुए पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए परंतु पुलिस को चकमा देकर भागने में सफल रहे। इस मामले में उन पर राजद्रोह का मामला दर्ज हुआ परंतु गवाह न मिलने के कारण वे छूट गए दूसरी बार वे 16 मई 1906 को पुनः पुलिस द्वारा पकड़े गए परंतु उम्र कम होने यानी नाबालिक होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। 6 दिसंबर 1906 ईस्वी को नारायणगढ़ नामक स्टेशन पर एक विशेष ट्रेन द्वारा जा रहे बंगाल के गवर्नर पर बम फेंके। परंतु वह गवर्नर बच गए 1908 में वाटसन तथा पैम्फासल्ट नामक दो अंग्रेज अधिकारियों पर भी हमला किया परंतु वे भी बच गए। उसी समय नामक एक अत्याचारी अंग्रेज अफसर का तबादला कोलकाता से मुजफ्फरपुर में सेशन जज के रूप में अंग्रेजी हुकूमत ने कर दिया। सभी क्रांतिकारियों सेशन जज किंग्सफोर्ड को मारने के लिए खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल कुमार चाकी का चयन किया गया। 30 अप्रैल 1908 को दोनों रात में किंग्स के बंगले के बाहर घात लगाए बैठे थे जब अंदर से दो बग्गी बाहर निकल रही थी तब खुदीराम बोस ने अगली बग्गी पर बम फेंक दिया उसमें किंग्स फोर्ड ना होने के कारण वह तो बच गया परंतु दो अंग्रेज महिलाओं की मौत हो गई क्योंकि वह पीछे वाली बग्गी में सवार था। दोनों वहां से नंगे पांव भागे जहां खुदीराम बोस को वैनी रेलवे स्टेशन पर पकड़ लिया गया। 1 मई 1908 को खुदीराम बोस को मुजफ्फरपुर लाया गया तथा मुकदमा चलाया गया सेशन जज पर बम फेंकने के आरोप में उन्हें 11 अगस्त 1908 को फांसी दे दी गई जब उनकी उम्र मात्र 18 वर्ष कुछ महीने थी। उनकी वीरता, निडरता, साहस और शहादत इतनी लोकप्रिय हो गई कि बंगाल के जुलाहे उनके नाम से एक खास किस्म की धोती बुनने लगे जिसके खुदीराम बोस का नाम बुना रहता था। उनके फांसी के बाद कई दिनों तक स्कूल-कॉलेज बंद रहे। सबसे कम उम्र में फांसी लटकाए जाने वाले यह वीर क्रांतिकारी आज भी युवाओं द्वारा दिल से याद किए जाते हैं। उनके नाम भारत सरकार ने मुजफ्फरपुर के निकट एक रेलवे स्टेशन को बनाया है।

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