खुला पत्र पृथ्वी वासियों को
मैं प्रकृति हूं, मुझे पहचानते तो होगे ही? क्यूँ नहीं पहचानेंगे, भई इतने पत्थर दिल तो नहीं की बर्बाद भी किया और पहचान तक नहीं। तो क्या लगता है मुझे कोसते हुए?? ये ज़लज़ला, बाढ़, जंगल की आग, आसमानी आफत.. तुम्हारा बहुत नुकसान हो जाता होगा ना? कसूरवार कौन है? मैने तो तुम्हें आसरा दिया तुमने क्या किया आशियाने को खुद ही आग लगा दिया। जिसे तुम "विकास" कहते हो, क्या किया उसके लिए, मेरे दुनिया उजाड़ने की कवायद चालू हो गई। इतना रासायनिक कचरा, इतना प्रदूषण.. अरे धरती बंजर हो रही है.. खाओगे क्या.. पत्थरों की इमारत? मेरी साँसों में इतना जहरीला धुआं भर दिया है, मेरी रग रग से पानी सूख रहा है। मेरा दम घुट रहा है, मुझे मार कर तुम जी जाओगे? समन्दर गुस्से में सुनामी बन गया है पर तुम ताकत की होड़ में बनाओ परमाणु कार्यक्रम और कचरा लाकर डाल दो समंदर के सीने में। याद रखो जो दोगे वो पाओगे, जो बोओगे वो काटोगे। मेरे आंसू तुम्हें दिखाई नहीं देते, मेरी चीख सुनाई देती और कैसे इशारे दूँ। तुम्हें दुःख होता है तो तुम जान दे देते हो, गुस्से में जान ले लेते हो, तो अगर वही मैं करूँ तो?.. तो अब भी वक़्त है मेरे सब्र का इम्तेहान मत लो, ऐसा ना हो तुम्हारे मारने से पहले मैं खुद ख़ुशी कर लूं, तुम्हारा कोई ज्ञान, कोई विज्ञान फिर तुम्हें बचा ना पाएगा।मुझे मां कहते हो ना तो बस माँ के बर्दाश्त का बाँध मत तोड़ो।
-प्रकृति (सृष्टि, कुदरत, पर्यावरण, धरती,)
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