आज फिर वही स्वप्न देखा
पिंजरे में बंद मैं उन्मुक्त होने को
पंख घायल करती
बेड़ियाँ तोड़ उड़ने की कोशिश
फ़िर अचानक नींद खुल जाती है
मेरा चांद का टुकड़ा चाय ला दो
शहद घुली आवाज़ आती है
हाँ मैं उनकी चांद हूं
वो मेरे लिए पृथ्वी है
बाँध रखा है अपने प्रेम के बंधन में
मैं उनकी बस परिक्रमा करती हूं
कितनी दुविधा है मन में
सामने सूर्य होके भी मैं उससे दूर हूं
अपनी चमक के लिए
दूसरों पर आश्रित मजबूर हूं
कुछ सपने अपनी डायरी में
हमेशा से कैद कर रखे हैं
काश तुम उसे पढ़ लेते
और चांद होने से मुक्त कर देते
बनना चाहूँ एक उन्मुक्त तारा
अपनी हो जिसमे चमक
क्या हो जो अगर एक दिन
मेरे सपनों को पंख लग सके
रंग बिरंगी तितली बन कर
उन्मुक्त गगन मे उड़ सके
अपने ख्यालों से निकल
प्याले में चाय सजाती हूं
चलती हूं मैं चांद हूं
सिर्फ रात में ही जगमगाती हूं
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