स्वाद (लघुकथा)

दूसरों को भोजन सिर्फ पुण्य कमाने के लिए मत कराओ, स्वाद वैसे ही होना चाहिए जैसे खुद पसंद हो

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Sushma Tiwari
Sushma Tiwari 08 Apr, 2020 | 1 min read

उस भिक्षुक की हथौड़े की तरह बातों से बड़ी अकधक सी मची हुई थी सेठाइन के दिलों दिमाग में। रह रह कर मस्तिष्क और हृदय के बीच घोर युद्ध मच रहा था। अकर्मण्यता के चरम सीमा पर बैठे ये लोग अब मुझे प्रश्न करेंगे?

" माताजी! तुम चख लिया करो जरा दाल .. नमक रोज ही तेज हो जाता है "

इन निठल्लों को मैं इस सर्दी में अपने ऐशो आराम छोड़ भोजन कराने दौड़े चली आई और इन्हें स्वाद की पड़ी है। पिछले पांच सालों में एक दिन भी नहीं छोड़ा इन्हें भोजन कराना , घर पर इतने नौकर चाकर है पर इनका भोजन खुद अपने हाथों से बनाती हूं। पुण्य की बात ना होती तो बताती इन्हें।

यही सोच सोच कर अभी सेठाइन को बड़ी कचोट मची हुई थी। गऊशाला से काम निपटा सोफ़े पर जा पसरी। गाये भी रंभा रही थी, आज सब विद्रोह में खड़े हैं क्या, उसे भी स्वाद ना आया घास में? कुसुम को आवाज लगाई और अपना भोजन लगाने को कह कर पाट पर बैठ गई। पहला निवाला मुँह में डालते ही मुँह कसैला हो गया।

"अरे ओ कुसुमिया! तुझे आज कौन सा बैर है मुझसे? सारे जहां का काम मैं सम्भाले हुए हूं, तुझसे एक भोजन ना बन रहा.. स्वाद देख! मुँह में ना पड़ता।"

"क्या हुआ माताजी? माफ़ कर दो, मैंने जो दाल बनाई थी ना छोटे भैया दुकान पर ले गए डब्बे में भर कर, उन्हें पसंद आई थी..खत्म हो गई तो ये आपने बनाई थी ना.. वो ही वाली दाल दे दी मैंने आपको। मैं अभी बनाती हूं दूसरी.. "

" रहने दे " बोल कर सेठाइन ने पूरा ग्लास पानी गटक कर स्वाद की चाहत को भुलाने की कोशिश की ।

-सुषमा तिवारी

मौलिक

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