मसीहा

कुछ लोग जीवन में मसीहा बन कर आते हैं

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Sushma Tiwari
Sushma Tiwari 08 Feb, 2020 | 0 mins read

बारहवीं के परीक्षा परिणाम आने वाले थे और हृदय प्रसन्नता से उछल रहा था। शुरू से ही परिक्षाओं से खास लगाव रहा और परिणाम का भी बिना किसी चिंता के इंतज़ार रहता था। भविष्य की सुनहरी तैयारियों की कल्पना में डूबे कालेज के गेट पर पहुंच चुकी थी मैं पर यह नहीं पता था कि असली परीक्षा अब शुरू होगी। निश्चय ही कॉलेज में टॉप करने की उम्मीद लिए परिणाम पट पर अपना नाम खोज रही थी मैं जो अंततः नहीं मिला। आँखों के सामने अंधेरे जैसे स्थिति हो गई जब पीछे से किसी ने कहा कि फेल वाली लिस्ट में चेक करो। 120 की रफ्तार से दिल कूद रहा था। मेरे पापा ने कॉलेज में मेरे कदम तक ना रखा था, हमारी जिम्मेदारी होती थी अपने सारे काम निपटाने की और पढ़ाई को लेकर बहुत ही कठोर अनुशासन। फेल की ख़बर देने की सोच भी नहीं सकती थी क्यूँकी यकीन करना मुश्किल था। खैर फेल लिस्ट में भी नाम नहीं था कुल मिला कर मैं अदृश्य! अब बारी थी घबराने की मेरी, क्या करूँ? रोना स्वाभाविक था और घर कैसे जाऊँ क्या समझाऊं?

मुझे परेशान देखकर कालेज के चपरासी भईया आए। सारी बात सुन कर समझ कर बोले कि परेशान होने की जरूरत नहीं ऐसा होते रहता है। वो शब्द मुझे किसी आकाशवाणी से कम ना लगे क्यूँकी शिक्षा तब भी और अब भी मेरे लिए प्राण से ज्यादा प्रिय था। मेरे लिए वो भईया किसी "मसीहा" से कम नहीं अपितु बढ़कर ही थे। बहुत भागदौड़ की उन्होंने कालेज में फिर किसी का पता दिया जो यूनिवर्सिटी में इस मामले के जानकार थे। क्यूँकी गलती परीक्षा केंद्र की थी जिन्होंने मेरी उपस्थिति वाली शीट ही नहीं भेजी थी। काफी भागदौड़ के बाद मुझे मेरा रिजल्ट मिला और अनुमानित था वैसे ही मैं कालेज में टॉप थी। पर बासी खुशियों को कौन मनाता? फायदा यही हुआ कि मेरा साल बर्बाद होने से बचा और आगे एडमिशन मिल गया। आज भी दिल उनको कोटि कोटि धन्यवाद देता है।

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