उफ्फ! चार बज रहे हैं.. आज जल्दी आंख खुल गई..ऐसा लग रहा है फिर भी कितनी लंबी नींद सोया मैं। बीती रात विक्षिप्त सा महसूस हो रहा था, सिर भी भारी था पर अब स्फूर्ति सी छाई है.. अब अच्छा लग रहा है। दिमाग में अभी भी पत्नी रिचा के शब्द गूंज रहे थे, "इतने परेशान हो हम सबसे से तो हमे जहर क्यूँ नहीं दे देते.. मुक्त हो जाओगे तुम भी और हम भी".. मैंने भी तो गुस्से में कह दिया था कि "तुम लोग ही दे दो मुझे जहर, तंग आ गया हूँ रोज रोज की चिक चिक से ".. "खुद ही कर लो ये नेक काम"
उफ्फ! रिचा की ये बात सुन तकिये में मुँह डाल कितना रोया मैं। अपने खूबसूरत रिश्ते के इस दौर में पहुंच जाएंगे सोचा ना था। खैर रात गई.. मैं किसी से बात भी नहीं करना चाहता हूं। पीछे के रास्ते गली पकड़ मेन रोड पर निकल आया हूँ, किसी का सामना भी नहीं करना मुझे।
आज हवा को इतने करीब से महसूस करना बड़ा अच्छा लग रहा है, शायद दैनिक जीवन की भागदौड़ में अपने लिए सुकून के पल खोजे ही नहीं कभी। शादी शुदा जिंदगी क्या सोच कर शुरू की और ख्वाहिशों को बढ़ाते हुए कहां आ पहुंचे की शब्द बाण से एक दूसरे को घायल कर रहे हैं। खैर मुझे क्या? वो मुझे नहीं समझती, मेरी परेशानी उसे दिखाई नहीं देती तो मैं क्यूँ कुढ़ते रहूं.. आज पूरे दिन बाहर रहूँगा.. ना कॉल करूंगा ना खबर लूँगा.. खोजो कहाँ खोजते हो.. शायद ना भी खोजे.. हूंहह! मैं भी निश्चिन्त होकर पूरा दिन बिताऊँगा।
हाँ ये पार्क ठीक रहेगा, अब बैठूंगा...वैसे तो थकान भी नहीं लग रही..सोच सोच में सूरज सिर चढ़ने को आया..मुझे खोज रहे होंगे, नहीं नहीं मैं फिर वही बातें सोचने लगा। सामने बेंच पर बैठे पिता पुत्री को देखकर दिल भर आया.. सोना की क्या गलती, हमारे बीच के झगड़े में बिचारी बच्ची पिस रही है.. उसके भविष्य की तैयारी में लगे हम उससे वर्तमान की खुशियां छिन रहे हैं। आह! हृदय में इतनी वेदना बेटी के लिए अचानक उठ पड़ी है.. ये मैं क्या कर रहा हूं.. सोना एक पल भी मुझसे दूर नहीं रहती.. कल रात भी दरवाजे पर खड़ी रो रही थी, "पापा! आपके साथ सोना है.. प्लीज मत रोयें, मैं कुछ नहीं मांगूंगी अब से "
नहीं नहीं.. मैं भी पागलों जैसे कुछ भी हरक़त कर रहा हूं .. मुझे घर चलना चाहिए.. छोटे मोटे झगडे कहाँ नहीं होते, इस तरह बिन बताये नहीं आना चाहिए था.. जाने सोना और रिचा की क्या हालत होगी। घर की तरफ दौड़ते हुए मेरे पैरों को जैसे पंख लग गए हैं।
धक्क! धक्क!...
ये.. ये.. क्या? मेरे घर के सामने एम्बुलेंस क्यूँ खड़ी है.. किसे क्या हुआ? कलेजा मुँह को आ रहा है.. पैर जम गए हैं ..
स्ट्रेचर पर सफेद चादर में.. रिचाss!.. नहीं ये नहीं हो सकता।
"बेचारी ने खुद को दोषी ठहराते हुए आत्महत्या कर ली" पीछे से आवाज आई।
"किस बात का दोषी?" दूसरी आवाज आई।
"पति की मौत का.. बेचारे ने रात के झगड़े के बाद जहर खा कर जान दे दी.. सुबह कमरे से उसकी लाश मिली भाई..बेटी का रो रोकर बुरा हाल है " पहली आवाज़ आई।
और मेरे सामने दूसरा स्ट्रेचर है.. जिसमें चादर में लिपटी मेरी लाश!
(शब्द संख्या - 541)
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