राजेन्द्र बाबू ने दुकान का सामान अंदर समेटना शुरू कर दिया था। त्यौहारों का मौसम था दूर दूर तक नज़रें दौड़ाने पर रोशनी से नहाई इमारतें नज़र आती पर दिल के अंदर का अंधेरा चेहरे पर मायूसी बन कर छाया हुआ था। बाहर निकला तो बाजू वाले रमेश बाबू ने पूछ लिया
"क्या भईया आज इतनी जल्दी बंद कर रहे हैं दुकान.. वैसे तो फुर्सत ही नहीं होती आपको जरूरी कामों में हिस्सा लेने की"
"हाँ तबीयत ठीक नहीं" कहकर राजेंद्र बाबू घर की ओर चल पड़े।
क्या कहते और बहस करते। सही तो कह रहे हैं रमेश बाबू! कितने दिनों से व्यापारी संघ कह रहा था चाहिए हमारे साथ ऑनलाइन दुकानों के खिलाफ धरना पर बैठते हैं पर राजेंद्र बाबू को लगता की फालतू का धरना प्रदर्शन के बजाय अपने व्यापार पर ध्यान देंगे तो ऑनलाइन वाले क्या कर लेंगे भला? पर बीते कुछ दिनों से इक्का-दुक्का ही कोई आता था दुकान पर.. सन्नाटा पसरा था बाजार में । उधर पत्नी और बच्चों ने कहा था की इस त्यौहार नए कपड़े चाहिए और इस महीने इतनी बिक्री ना हुई और ना बचत। क्या मुँह लेकर जाए घर.. सबके बुझे चेहरे पहले से ही आँखों पर नाच रहे थे। अब सोच लिया कल से धरने पर बैठने जाऊँगा जरूर। घर पहुंचते ही बेटा दौड़ कर आ चिपक गया। पत्नी ने चाय के संग पकौड़े पेश किए।
"ये लो खाओ! और ये साड़ी देखो ! कैसी लग रही? मुन्ने का सूट कैसा है? तुमसे ना होता कुछ.. भला हो ऑनलाइन सेल का.. पूरे 25% की छूट थी.. वर्ना हमारा त्यौहार तो यूँ ही निकल जाता। बच गए तुम आज से ही हम माँ बेटा धरने पर बैठने वाले थे तुम्हारे खिलाफ।"
"धरने पर तो अब बैठना ही होगा.. आज मेरी ही तरह किसी और दुकान दार भाई का त्यौहार सूना रह गया और हम भी इसमे सहयोगी बने थोड़े से लालच में " राजेंद्र बाबू ने चाय का प्याला रखते हुए कहा।
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