लोकल की टिकट लाइन में खड़े खड़े वृंदा जितने ट्रेनों को आँखों के सामने से निकलते देख रही थी उतनी ही बेचैनी बढ़ रही थी। आज परीक्षा पक्का छूटेगी..उसकी ही गलती है..याद ही ना रहा ट्रेन पास एक्सपायर हो गया था कल ही। क्या करती वो.. मुन्ने को दो दिन से बुखार था और ये परीक्षा छोड़ देगी तो छह महीने और इंतज़ार! कितना सुनना पड़ा है वैसे ही इन दो सालों में की अपने सपनों के आगे परिवार को प्राथमिकता नहीं देती वगैरह वगैरह। बमुश्किल टिकट लेकर प्लेटफॉर्म पर पहुंची जहां पहले से ही अपने कर्तव्यों के गुलामों का महा समुद्र उमड़ा पड़ा हुआ था। लेडिज कोच के आगे खड़ी अपना बैग सम्भाले वृंदा देखती है कि एक वयोवृद्ध, शायद नज़र भी कमजोर थी उस चक्रव्यूह को भेद आगे आने की विफल कोशिश कर रही थी। भीड़ में से आवाजें आ रही थी "अम्मा! हट जाओ ट्रेन के नीचे आ जाओगी"। उसके अनुनय विनय को अनदेखा कर सभी आई हुई ट्रेन में चढ़ गए। चढ़ते ही वृंदा का दिल भर आया, इतनी संवेदनहीन वो खुद कब से हो गई.. कहीं अम्मा ट्रेन के नीचे आ गई हो तो? बेचैनी में अगले स्टेशन उतर दूसरी ट्रेन ले ली वापसी की । दिमाग में फिर वही कुलबुलाहट "उफ्फ! पागलपन कर दिया, अब तो परीक्षा देने से रही और शायद अम्मा कहाँ रुकी होगी इतने देर"। वापस आई तो अम्मा अभी भी सफेद लाइन के पीछे इंतज़ार में थी। वृंदा ने हाथ पकड़ कर चढ़ाया उन्हें ट्रेन में। सीट पर बिठा कर पूछा "अम्मा! कहाँ जा रही थी इस भीड़ में?"
"बेटे का विदेश मे प्रमोशन हुआ है, दादर जाना था मनौती चढ़ाने "
" अम्मा! ऐसा परिवार मिला जो तुम्हें अकेले छोड़ गया, कौन से भगवान को पूजती हो भला ?"
"वही भगवान बेटा! जिन्होंने तुम जैसे संवेदनशील लोग भी बनाए है"।
वृंदा ने गौर किया परीक्षा का समय निकल चुका था।
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