"बहुत कुछ है कहना आसमान से ज्यादा
दरिया से गहरा दिल है पर क्या फायदा
हम यूँ ही लोगों को समझदार समझ बैठे।"
©सुषमा तिवारी
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"उनके हर झूठ को हम कड़वे घूंट बना पी गए
वो अपने सच की सच्चाई भी निगल ना पाए
सही कहा गया है हर सच कड़वा ही होता है।"
©सुषमा तिवारी
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आज हम बात करेंगे त्रिवेणी कविता की, और इसे कैसे लिखें। पहले जानते है क्या है ये मशहूर काव्य विधा।
त्रिवेणी सिर्फ तीन लाइन वाली कविता गागर में सागर है। ऐसा माना जाता है कि प्रसिद्ध गीतकार और कवि गुलज़ार साहब ने इस त्रिवेणी विधा को विकसित किया था।
कुछ लोग 'त्रिवेणी' को जापानी 'हाइकु' का स्वदेशी संस्करण भी कहते हैं, परन्तु यह पूरी तरह अपने देश में विकसित विधा है और जापानी काव्य विधा हाइकु से अलग मुक्त विधा है।
'हाइकु' और 'त्रिवेणी' में केवल इतनी समानता है कि दोनों में सिर्फ तीन पंक्तियां होती हैं। इन तीन पंक्तियों की समानता के अलावा इन दोनों विधाओं में और कोई समानता नहीं है।
'त्रिवेणी' की रचना का मूल प्रेरणा स्रोत भी जापानी काव्य ही कहा जाता है। वैसे गुलज़ार साहब ने इसके बारे में अपनी त्रिवेणी संग्रह रचना 'त्रिवेणी' के प्रकाशन के अवसर पर इसकी परिभाषा इस प्रकार दी थी-
"शुरू-शुरू में तो जब यह फॉर्म बनाई थी, तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी। 'त्रिवेणी' नाम इसीलिए दिया था कि पहले दो मिसरे, गंगा-जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल, एक शेर को मुकम्मल करते हैं। लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है - सरस्वती, जो गुप्त है नज़र नहीं आती। 'त्रिवेणी' का काम सरस्वती दिखाना है। तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ है। 1972-1973 में जब कमलेश्वर जी सारिका के एडीटर थे, तब त्रिवेणियाँ सारिका में छपती रहीं और अब 'त्रिवेणी' को बालिग़ होते-होते सत्ताईस-अट्ठाईस साल लग गए।
त्रिवेणी का फ़र्क़ इसके मिज़ाज का फर्क है। तीसरा मिसरा पहले दो मिसरों के अर्थ को कभी निखार देता है, तो कभी उसमें इजा़फा करता है या उन पर ‘कमेंट’ करता है।
गुलज़ार जी की त्रिवेणियाँ
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१)उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलती रही वह शाख़ फ़िज़ा में
अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए ?
२)क्या पता कब कहाँ मारेगी ?
बस कि मैं ज़िंदगी से डरता हूँ
मौत का क्या है, एक बार मारेगी
३)चौदहवें चाँद को फिर आग लगी है देखो
फिर बहुत देर तलक आज उजाला होगा
राख हो जाएगा जब फिर से अमावस होगी
४)रात के पेड़ पे कल ही तो उसे देखा था -
चाँद बस गिरने ही वाला था फ़लक से पक कर
सूरज आया था, ज़रा उसकी तलाशी लेना
५)जुल्फ में यूँ चमक रही है बूँद
जैसे बेरी में तनहा इक जुगनू
क्या बुरा है जो छत टपकती है
६)आओ जुबाने बाँट लें अब अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है
दो अनपढ़ों को कितनी मोहब्बत है अदब से
७)ऐसे बिखरे हैं रात दिन, जैसे
मोतियों वाला हार टूट गया
तुमने मुझे पिरो के रखा था
१५) लोग मेलों में भी गुम होकर मिले हैं बारहा
दास्तानों के किसी दिलचस्प से एक मोड़ पर
यूँ हमेशा के लिए भी क्या बिछड़ता है कोई?
गुलजार
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