वो चुपचाप दरवाजे के पीछे खड़ा हो टुकुर टुकुर देख रहा था,
नम थी आँखें उसकी, भाव कुछ अलग सा था। कपकपाति आवाज़ थी, शायद कुछ कहना चाहता था वो,
पास बुलाया मैंने, कदम पीछे हटाने लगा वो। नासमझ मैं ना समझ सकी उसके मन की व्यथा को,
पानी की हर घूंट के साथ सुपकियां ले रहा था वो। खो गया था मेरे घर काम करने वाला छोटू अपने गाँव की यादों में,
कैसे लड़ता था, याद आ रही थी उसको अपनी बहनें।
सूनी कलाई देख गहरी चुप्पी तोड़ी थी उसने,
क्या मैं उसकी कलाई पर भी राखी बांध सकती हूं, झिझकते हुए ये प्रश्न किया उसने।
वो कहता थी दीदी मुझे, नहीं पता था दिल में देता वो मुझे इतना सम्मान,
हमारे लिए उसकी एहमियत थी जैसे बस किचन के बर्तन या कोई सामान।
थाली लेकर आया वो, तिलक लगाया जब मैंने उसे,
लाया लाल मौली निकालकर घर के मंदिर की उस पतली दराज से।
रोके ना रुक रहे उसके आंसू, मन्ज़र ये अनपेक्षित था,
कहना था उसको कुछ और भी, कहता दीदी देने को कुछ नहीं मेरे पास।
मार गालों पर हल्का सा हाथ उसके, स्थिर सी होगई थी मैं,
राखी के इस त्यौहार पर वो भी किसी का भाई है, ये भूल गई थी मैं।
यहीं तो होती है भारत के हर त्यौहार की एक खास बात,
बनते हैं नये रिश्ते और पुराने रिश्तों में बढ़ती जाती और मिठास।
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