मेरी सीधी सादी हाउस हेल्प गीता और मेरे बीच एक छोटी सी बातचीत...
दीदी, आप क्या लिखती हैं? कुछ सुनाइए ना...
ऐसे ही छोटा मोटा, जो मन करता है, जो दिल कहता है, वही पन्नों पर उतार देती हूं।
कब से लिखती हो दीदी? कुछ सालों से.. बस अभी अभी मैंने एक गृहनी एक बहू एक माँ की पहचान से लुका छुपी छोड़ कर अपनी लेखिका की पहचान को ढूँढा है, अब मेरे चेहरे से नहीं पर मेरे लिखे लेख से भी लोग मुझे पहचानते हैं।
दीदी, आपको पता है। जब मैं छोटी थी तब मैं भी अपने मां बाबा के सपनों की उड़ान भर एक उमदा पहचान बनाना चाहती थी, पर गांव में लड़कियों को पहचान नहीं, बस छोटी उमर में एक परिवार बनाना होता है।
दीदी, मैं भी आपको कुछ सुनाऊ? बिलकुल गीता ! हाथों में उसमें झाड़ू पकड़ी थी, पर लगा वो तो कलम पकड़ना चाहती थी,
उसकी पंकत्यों ने छोड़ा मुझे स्तब्ध, कितना कुछ वो मुझसे कहना चाहती थी।
उसकी पंकित्यं कुछ ऐसी थी - मैंने भी सपने देखे थे, मैंने भी परी बनकर उड़ने की तैयारी करी थी, पर तेरा साल की उम्र में कर शादी, कहदिया अब यही जिम्मेदारी है तेरी।
बीवी बहू तो बन गई, पर लुप्त हो गई मेरी खुद की एक पहचान, पहले रवि की बीवी कहते थे, अब शौर्य की मां, पर कोई ना समझ की मेरा गीता है नाम,
यू तो खुश हूं मैं अब भी, पर गिला रहेगा हमेशा की जिस तरह आई थी वैसे ही चली जाऊंगी बनकर एक गुमनाम।
सकी आंखों में नमी थी, और जुबान पर भीनी सी मुस्कान, अब अपने बच्चों को पढ़ा लिखा उन में ढूंढती हैं वो अपनी खोई हुई पहचान... अपनी वो खोई हुई पहचान।
Image source - Internet
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