बचपन की यादें

Self composed poetry

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Shweta Gupta
Shweta Gupta 28 Jul, 2022 | 1 min read

बचपन - इसको जितना याद किया जाये उतना ही उसमे खो जायेंगे हम,

छोटी छोटी चीज़ों में ढूंढ लेते थे बहाने तब खुश होने के हम.

अपनी बचपन की यादों का पिटारा किसी जादुई बक्से से कम नहीं,

एक के बाद एक किस्से कहानियां खुलते हैं, कोई हसाये तो कोई छोड़ देता ग़मगीन.

तब गलती करने पर सजा तो मिलती थी पर माँ फिर गले भी लगा लेती थी,

बेफिक्र उड़ते थे अपनी ही धुन में,समय से आगे भागने की होड़ न थी.

मस्त मगन रहते थे दोस्तों के साथ हसी ठिठोली में,

कभी हम उनके घर कभी वो हमारे घर मिलते थे.

डर लगता था बस पापा की डांट का,

मम्मी को लगाकर मक्खन खूब, पापा को भी फिर लेते थे पटा.

दुनियादारी के झमेले में न पढ़कर, करते थे अपनी हे मनमानी,

माँ के आँचल को पकड़कर और पापा के स्कूटर पर बैठकर,मानो पूरी दुनिआ ही देख डाली.

रहते थे बुराइओं के मेलों से दूर,रंगते थे अपना अलग सा आसमान,

पल में हसना पल में रूठना, सपना सा लगता hai वो बचपना.

अधूरा होमवर्क, टीचर की फटकार, एग्जाम का डर और ट्यूशन की टेंशन,

भूलकर भी नहीं भूलते, ज़िन्दगी की पिक्चर के तब हम ही हीरो थे हम ही विलन.

पचपन के होजायें तब भी बचपन को याद् कर चेहरे पर मुस्कान अपनी जगह बना ही लेगी,

वो थे दिन जो बीत गए पलक झपकते, लगता है फिर उन्ही गलियों में पुकार ले हमें कोई.

अब लगता है खामखा ही बड़े हुए हम तो,बचपन ही अछा है,

ज़िंदगी के उन सुनेहरों पन्नो की वो किताब,ये दिल फिर एक बार पढ़ना चाहता ह.

Picture courtesy - Storymirror


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