... गुड मॉर्निंग.. सुप्रभात.. मैं प्रकृति के सबसे करीब होती हूं जब सुबह मेरे घर के पास वाले पार्क में मैं सैर के लिए जाती हूं,
बिल्कुल अलग सा लगता है सब कुछ। एकदम अलग... ऐसा लगता है, मनो परिंदे आपस में कुछ गुफ्तगू कर रही है, कैसी रात बीती उनकी, यही कहते हैं एक दूसरे को छेड़ रही है।
वो नमी भरे पौधे, हमें अपनी ताजगी में भिगों के इंतजार कर रहे हैं,
वो सदाबहार के फूल घास में गलीचे की तरह बिछे, कितने खूबसूरत लग रहे हैं।
कोसी कोसी धूप और शीतल हवा के झोंके चेहरों को जब प्यार छूते है, मूँद आंखें कर मन पुरानी फिल्मों के गाने सुनने को करता है।
कैसे एक तरफ बड़े लाफ्टर योग कर है कर हमें भी हसते है,
छोटे छोटे बच्चे बैठ झूले में, खुली हवा के मज़े लेते जाते हैं।
गिलहरियां भी पेड़ पर ऊपर नीचे कर मनो व्यायाम करती हैं, कुछ भी कहो, सुबह की सैर एक एनर्जी बूस्टर की मीठी दवाई सी काम करती है।
ऐसा लगता है कुदरत कहती है, ऐ इंसान वक़्त है संभल जा, हम यहां तेरे लिए ही हैं, ले ले लेना है जितना मजा।
कुछ साल बाद
कहां गए वो दिन जब सुबह सुहानी सी लगती थी, छीन चुके प्रकृति के रंग हम सारे, हमारे बच्चों की क्या गलती थी।
ना पक्ष की मधुर आवाज है, बस कानों में गडिय़ों की गूंज है,
ना खूबसूरत फूलों से भरा बागान है, ऊंची इमारतों से ढकी धरा है।
बसंत ने आना छोड़ दिया अब, पतझड़ ही है बारोन महीने ,
पानी के लिए Bhim हाहाकार है,
साफ हवा ढूंढते हम ऑक्सीजन सिलेंडर में।
कहा कुदरत के हर जीव ने, ऐ इंसान कहीं का ना छोड़ा तूने हमको, कैसे जिएगा हमारे बिन, पछतावा होगा अब तुझको.
शुक्र है सपना था-
वक्त है अब भी, संभल जाते हैं हम सब, पेड लगाओ, पानी बचाओ, आओ अपने पर्यावरण के साथ उम्र भर का रिश्ता निभाने का वादा करें हम सब।
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