मुसाफिर

मुसाफिर - Self composed poetry

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Shweta Gupta
Shweta Gupta 17 Dec, 2022 | 1 min read

मुसाफिर तो हम सब हैं, हम सबकी मंजिलें अलग अलग हैं,

रास्तों की दिशाओं भिन्न हैं, अनुभव भी बहुत हैं। कई उतर चढ़ाव से हमारा होता है सामना,

पर एक लड़की के सफर का ऐसा मोड़ जिसका रास्ता कोई जीपीएस नहीं दिखा सकता।

आज मैं ऐसे ही सफर से जुड़े अपने एहम अनुभव को आप सबके सामने कहना चाहती हूं।


छोड़ अपना बसेरा, एक नई मंजिल की ओर मैं बढ़ चली थी,

एक नई जिंदगी की करने शुरूआत, बेखबर मुसाफिर की तरह मैं चल पड़ी थी।

मायके से ससुराल का सफर काफी लंबा था,

दिल और दिमाग यही गुफ्तगू करते रहते थे कि कैसे कटेगा!पर तै तो करना था।

रास्ता होगा कठिन मुझे पता था, माता पिता जिन्होने हमेशा ऊँगली थाम राह दिखाई, उन्हें अलविदा कहना था।

जीवन के इस नए पढ़ाव में काफिला था मेरे साथ पर फिर भी मैं थी अकेली,

बांध हिम्मत को अपने संस्कारों के मजबूत जोड़ से, मैं उस दुनिया को धीरे धीरे सजने लगी थी।

नए लोगों से मिलना था, नए रीति रिवाजों को अपनाना था, ना पढ़कर झमेलों में, रिश्तों के मेलों में खुदको पाना था।

फूँक फूँक कर कदम रखती थी इस नई डगर पर, बस आंखें बंद यही सोचती थी कि हस्ते खेलते निकलते रहे ये सफर।

तानों का शोर मिलता था अगर, तालियों की गूंज ने प्रोत्साहन भी दिया मुझे,

राही की तरह, उन नए लोगों ने हाथ पकड़ कर रास्ता भी दिखाया मुझे।

कश्मकश में अगर अटक गई कभी मेरी गाड़ी, पीछे मुड़कर अपने मां पापा की याद आती थी वो थपकी। धीरे धीरे अब ये सड़क अपनी सी लगने लगी है, मेरा घर परिवार रहे सदा खुश, बस अबतो यही मेरी मंजिल है।

अब चाहे आए इस रास्ते में जितनी भी रुकावटें या अंधेरा मुश्किलों का करे मनमानी,

हमसफर का हाथ पकड़ कर बढ़ती रहती हूं अब, ये थी इस मुसाफिर की छोटी सी कहानी।


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