बचपन में हम सभी ने सपने देखे थे, हैना!
बड़े नही पर बहुत देखे थे,
लड़के कहते हैं इंजनर या डॉक्टर बनूंगा और लड़कियां बस टीचर बनना चाहती थी।
हम नादान परिन्दों की तरह बस उड़ान भरने को तैयार रहते हैं,
मां बाप बन हमारे पंख, हमें उड़ने का सही तरिका सिखाते थे।
मेरे भी थे सपने जो अपने थे, हर दिन कुछ अलग सोचती थी,
सब आसन होता है, बस यही मैं समझती थी।
पढाई को कर पूरा, मैं बड़ी हो ही गई,
लक्ष मेरा नहीं था बड़ा, इसलिए शादी होगाई।
घर और ऑफिस संभालते, कई साल निकल गए, जब डगमगाने लगा संतुलन निजी और व्यावसायिक जीवन में तो घर और बच्चे ही मेरी मंजिल बन गए। लेकिन एक पहेली की तरह कुछ मैं अधूरी थी, इसका एक हिस्सा अब भी मुझे ढूंढना था,
हो मेरी एक अपनी पहचान, अब यही मानो मेरा एक नया सपना था।
ऊंचायों के शिखर पर नाम तो नहीं लिखना था, पर लोगों के दिलों में उतरकर जगह बनानी थी,
मैं गुमी नहीं, हूँ भीड़ में कहीं, रूबरू हो जाएं सब, यही मैंने ठनी थी।
बीते कल की मुलाकात हुई आने वाले कल से तो मानो बात बन गई,
मुझे बाज़ नहीं बनना था पर एक प्रवासी पक्षी की तरह अपनी नई जगह मुझे मिल गई।
जब भी भिन्न मंचों पर लिखने लगी अपने भाव, सपनों की उड़ान की शुरुआत हो चुकी थी,
कहते हैं 'स्काई इज लिमिट', तो मेरी छोटी छोटी उपलब्धियां मेरी प्रेरणा बन गई।
मेरे कलम की धार बस अब और तेज होती जाए, मेरे शब्द बिन छड़ी जादू बिखराएं,
सपना पूरा करने अब घोसला छोड़, उड़ते जाना है जहां ले जाए ये हवाएं हवाएं....
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