आज अपने बचपन के साईकिल चलाने के किस्से को आप सबके सामने रख रहा हूं जो कि मेरे साथ साथ आप सबके बचपन के भी यादों को ताजातरीन करेगा ।
बात बचपन की है जब साईकिल चलाना विशेष ख्वाब होता था और सबसे मुश्किल काम भी।
हमारे यहां ताऊजी और पिताजी बस साईकिल चलाया करते थे उनकी साईकिल भी 24 इंच की बड़ी डंडे वाली हुआ करती थी जो कि हमारे कंधे से काफी ऊंची होती थी। ऐसी साईकिल में बचपन में सीट पर बैठना तो आसान नहीं होता था।
सिर्फ कैची चलाना सीखते हमारा सारा बचपन गुजर जाया करता था और कैची चलाना भी बहुत बड़ी बात होती थी वो साईकिल के त्रिकोण फ्रेम के बीच में घुसकर के दोनों पैडल पर पैरो को रखकर चलाते थे।
आज की युवा पीढ़ी जो कि इस बात से वाक़िफ तक नहीं है की साईकिल चलाना भी बचपन में "जहाज" उड़ाने जैसा ही एडवेंचर देता था।
जब पहली बार साईकिल चलाई थी तो थोड़ी दूर जाकर पैर फिसलने से गिरने पर घुटने और मुंह का नक्शा बिगाड़ लिया था फिर भी सबसे बड़ी बात यह थी कि हमें दर्द का पता ही नहीं चलता था गिरने के बाद चुपचाप खड़े होकर अपने कपड़ों पर कीचड़ पोछते हुये फिर से साईकिल पर सवार हो जाते थे।
अब आज के आधुनिक युग में बहुत ज्यादा तेजी से विकास हुआ है पांच साल के बच्चे भी अब साईकिल चलाने के काबिल हो जाते है और बिना गिरे साईकिल चला पाते है।
मगर आज के बच्चे इस बात का कभी अंदाजा नहीं लगा सकते की उस छोटी सी उम्र में बड़ी साईकिल पर सवार होकर बराबर संतुलन बनाना भी "जिम्मेदारियों" की पहली सीढ़ी होती थी,
जिस निडरता और बेबाकीपन से हम साईकिल चलाते थे उसकी खुशी ऐसी होती थी कि मानों हमने आसमां छू लिया हो,
साथ ही हमे पहली जिम्मेदारी का एहसास होता था कि हम अब गेहूं पिसाने के लायक हो गये है।
साईकिल पर सवार होकर कैची चलाते कभी लुढ़काते हुये चक्की तक जाते थे पीछे गेहूं की बोरी लाद कर गेहूं पिसवा कर घर वापस आ जाते थे।
इस जिम्मेदारी को निभाने की खुशियां अनमोल और अद्वितीय होती थी।
और आज का सच यह की अब साईकिल चलाने में "कैची" वाली प्रथा गायब हो गई है,हम लोग इस दुनिया की अन्तिम पीढ़ी है जिसने साईकिल भी 3 प्रक्रियाओं में सीखा था पहली प्रक्रिया - कैची
दूसरा प्रक्रिया - डंडा
तीसरी प्रक्रिया - गद्दी वाली यानि सीधे सीट
अब वापस ना आने वाले वाले बचपन के वो सारे लम्हें,
अबकी पीढ़ी क्या समझेगी साईकल कैची वाले लम्हें,
-©® शिवांकित तिवारी "शिवा"
(युवा कवि एवं लेखक)
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