ए वक़्त के पाबंद शहर तू भी कभी मेरे गांव सा बेफ़िक्र होकर तो देख,
हर शुबह ताऊ की बैठक पे तू भी हुक्का सुलगा कर तो देख...
ए रात दिन दौड़ते शहर तू भी कभी मेरे गाँव सा ठहरकर तो देख,
हर दोपहर मोहल्ले के नीम के नीचे तू भी तांश खेलकर तो देख...
ए सोशल मिडिया पर ग्रुप बनाते शहर तू भी कभी मेरे गाँव सा मेलजोल बढ़ाकर तो देख,
हर शाम गली के नुक्कड़ पे तू भी हंसी ठट्ठा लगाकर तो देख...
ए स्विगि जोमाटो से भूक मिटाते शहर, तू भी कभी पेट भरकर तो देख,
हर रोज घर के चूल्हे पे बैठकर, तू भी माँ के हाथ का खाकर तो देख...
ए वक़्त के पाबंद शहर तू भी कभी मेरे गांव सा बेफ़िक्र होकर तो देख...
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