वह खड़ी बीच बाजार,आँखों में शोले का लिए थाल,
पूछती है नर बुद्धिजीवियों से,
शौक, आजादी और मनमानी के तुम ही क्यूँ हो दावेदार ?
करते हो तुम एक दिन और रात ,
पर मिसालें और नजीर मैंने भी की हैं तैयार...!
हाड़ माँस मेरा भी गलता है,
दुनिया का एक पहिया मेरी छाती पर भी घूमता है,
अकेले तुमने ही नहीं धरती का बोझ उठाया है,
कंधों पर मैंने भी जिम्मेदारियों का झोला लटकाया है।
समय बदला है...
कहते हो तुम और सातों आसमाँ पर भी अपना राज समझते हो।
आधिपत्य, विधि, स्वतंत्रता, इच्छा...
सब पर तुमने क्यूँ अपनी मोहर लगाई है?
क्यूँ मेरे हिस्से में सदैव 'तपस्या' ही आयी है ??
स्वरचित
© चारु चौहान
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
उत्कृष्ट कृति
धन्यवाद @Sandeep
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