पनघट जाती पणिहारी

कल्पना वास्तविकता से बहुत अलग होती है। कुछ ऐसी ही एक कल्पना को आईना दिखाती मेरी कविता।

Originally published in hi
❤️ 3
💬 1
👁 1125
Charu Chauhan
Charu Chauhan 05 Jul, 2021 | 1 min read
payal jhund neckpiece shringar dil ring bachha sakhi water group

नहीं माँगती सोने की अँगूठी,

और भारी भरकम हार।

बिन जूतियों के भी हो जाता है,

असल पनघट जाती पणिहारी का श्रृंगार।

बचाती चलती है वह तो और खुद को,

कुएं से दो मीटर दूर बैठे अक्सर मर्दाना झुंड से।

वह नहीं चाहती तकरार कभी गली-मोहल्ले में,

वह तो खोलती है पानी भरते हुए, दिल सखी सहेलियों से।

है एक मटका सर पर धरा, दूजे का कमर पर बोझ,

लादती है फ़िर बच्चे को भी एक तरफा।

और बाँधती है फ़िर भी शराफत को,

वो पणिहारी पायल की जगह पैरों में।।


स्वरचित व अप्रकाशित

चारु चौहान

3 likes

Support Charu Chauhan

Please login to support the author.

Published By

Charu Chauhan

Poetry_by_charu

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

Please Login or Create a free account to comment.