नहीं माँगती सोने की अँगूठी,
और भारी भरकम हार।
बिन जूतियों के भी हो जाता है,
असल पनघट जाती पणिहारी का श्रृंगार।
बचाती चलती है वह तो और खुद को,
कुएं से दो मीटर दूर बैठे अक्सर मर्दाना झुंड से।
वह नहीं चाहती तकरार कभी गली-मोहल्ले में,
वह तो खोलती है पानी भरते हुए, दिल सखी सहेलियों से।
है एक मटका सर पर धरा, दूजे का कमर पर बोझ,
लादती है फ़िर बच्चे को भी एक तरफा।
और बाँधती है फ़िर भी शराफत को,
वो पणिहारी पायल की जगह पैरों में।।
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Good one
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