एक सखी बैठी है थकी हारी,
देखती है आसमान को...
कभी पथरीली राहों में बिखरी कंकर को,
आस लगाए कोई उसे एक नजर भर देखे....
तब खा़रजा़र से उसे निकालने को
सखी...तुम हाथ बढ़ाना ।
बैठी है निर्जन में उसे थोड़ा पानी पिलाना,
जब टूटने लगे उसका हौंसला,
तहसीन के लिए तुम सामने आना,
सखी तुम हाथ बढ़ाना...
आँखों के आंसू जब उसकी आँचल में सिमटे,
दामन बार बार सीने से ढलके
झूठ, कपट के जिरह से ऊपर उठकर,
तुम उसको गले लगाना,
सखी तुम हाथ बढ़ाना।
साँसे जब उसकी टूटने लगे,
आँखों का उजियारा तम में बदलने लगे,
उसमे जान फूंकने को....
तुम भी हाड़ मांस जलाना,
सखी... तुम हाथ बढ़ाना ।।
© चारु चौहान
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