मिली थी मुट्ठी भर ज़मीं हमें,
सींचना था जिसे शब्दों के उर्वरक से,
बोया उसमें फिर एक बीज़ प्रेम का,
दो साथियों के संग मिलकर मैंने,
जमा रहीं थीं पैठ, जड़े धीरे-धीरे,
उष्ण की लू ने अपना पहरा डाला।
झुलस रहीं थीं डालिया जिसमें,
फड़फड़ा रहा था हर पत्ता-पत्ता,
टूट रहा था कुछ अंदर-अंदर दिल में,
छोटे तनों ने फ़िर प्यार से गले लगाया।
बीत गया वो वक़्त भी चुपके से,
डेरा नए रंगों के साथ सावन ने डाला,
फल-फूलने लगा अब वृक्ष हमारा,
हो गया यूँ सब हरा-भरा बसेरा।
लेखनी नयी हो या मंजी पुरानी,
दिल में बसे हैं इसके सब प्राणी,
पहचान यहाँ सबको है मिलती,
पटल पर सुंदर वीडियो हैं सजती।
बढ़ रहा है परिवार हमारा अब,
जीवन का लक्ष्य भी दिख रहा अब ,
लहरा रहा खुशियों की शाखाओं से,
रंग-बिरंगे जादुई किस्सों कविताओं से।
अचम्भा ना करना यह सुनकर तुम,
तारीफ़ का हर शब्द सच ही जानना तुम
मंच ये कोई साधारण, ऐसा-वैसा नहीं है,
पेपरविफ-टीवी है मेरा, ऐरा-गैरा नहीं है।
🖋 चारु चौहान
स्वरचित व अप्रकाशित
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बहुत ही सुन्दर
🙏🙏
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