मेरे ख़्वाब नहीं मोहताज़,
किसी नींद या फुर्सत के पल के,
क्योंकि मिलते ही कहाँ है आँखों को...
सुकून के वो क्षण यूँ सस्ते में।
मैं चुन लेती हूँ मेरे ख्वाब,
तरकारी के तड़के में।
रंग बिरंगे कपड़े धुलने के वक्त...
सफ़ेद कपड़े अलग करने के सिलसिले में।
चुन लेती हूँ मेरे ख़्वाब...
दाल-भात खरीद कर लाते हुए,
रास्ते में दुकान के बाहर लटके वो सुर्ख लाल दुपट्टे के सितारों में।
क्रेडिट कार्ड के बिल भरते हुए...
तो कभी मेरे ख़्वाब देख लेती हूँ एक नोट को मोड़कर पुराने पर्स में ठूँसने में।
कभी ऑफिस पहुंचने को पकड़ी कैब की आधी खुली खिड़की के शीशों से ,
ऑफिस ब्रेक में ठण्डी होती कॉफी में पकते है अक्सर मेरे ख़्वाब, फ़िर भर लेती हूँ मैं उन्हें...
अपने कंधे पर लटके जिम्मेदारी से भरे बस्ते में।।
स्वरचित
©चारु चौहान
Comments
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खूबसूरत
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