बहुत करीब से देखा है मैंने उन धुंधली सी दीवारों को और वक़्त के साथ उन पर लगे जाले को,
चुभन उन नश्तर बने शब्दों के मायनों को और नक़ाब में छुपे दोहरे चेहरे को,
रेत पर बनायी जैसी विश्वास की लकीरों को, उलझे अमरबेल के वृंत जैसी मुस्कराहट को,
हाँ, बहुत करीब से ही देखा है मैंने रंगी पुती दीवारों को भी और उनके पीछे छिपी कालिख को।।
© चारु
Comments
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उत्कृष्ट रचना
बहुत बहुत धन्यवाद sandeep ji 🙏
शब्दों में बहुत गहराई है 👍
Beautifully written
Thanks Jyoti
Beautiful
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