किसान, कृषक या खेत का रखवाला
कहते हम उसे अन्नदाता भी हैं ।
लेकिन कहाँ देख पाते हैं उसकी लाचारी को,
सर्दियों में रात को खेत की सिंचाई करना ,
जेठ की दोपहरी को सर के ऊपर से निकालना,
जानता है वो परिस्थितियों से बखूबी दो-दो हाथ करना।
लेकिन वित्तीय संकट तो अच्छे अच्छे को है निचोड़ देता,
भला फिर किसान की भी बिसात क्या??
कर्जो के बोझ तले, दबती है उसकी हर साँस भी,
अपनी माँ जैसी जमीन को गिरवी रखते हुए,
फटती है उसकी छाती भी,
सैकड़ों पत्थरों का बोझ सीने पर महसूस होता है,
जब बेटी का रिश्ता पैसों के कारण टूटता है।
और देखो, बारिश में टपकती छत का पानी सींच लेते हैं वो बड़ी आसानी से,
लेकिन आँखों से बहते आँसू भला कैसे सीचें कोई ?
पर एक बात और है....
अमीरी, गरीबी की खाई से तो किसान भी नहीं बचा पाया ,
अमीर यहां भी अधिक अमीर और गरीब... और गरीब होता गया है।
कोई एक जोड़ी बैल को भी तरसता,
कोई हर साल ट्रैक्टर बदलता।
कोई बरसात से पहले कच्ची छत की घास उखाड़ता,
तो कोई हर साल एक मंजिल घर ऊँचा कर लेता।
थोड़ा कठिन है विश्वास करना...
लेकिन यही, यहाँ का भी जमीनी सत्य है।।
स्वरचित व मौलिक
© चारु चौहान
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