मैं खुदगर्ज बन गयी हूँ ,
मुद्दा य़ह आम हो चला है।
जबकि स्वार्थपरायण बन कैसे गयी?
मशहूर बात य़ह होनी चाहिए।
चुभती है बातें मेरी नश्तर की तरह,
जिक्र देखो खुले बाजार हो रहा है।
जबकि बातों को मेरी धार कैसे मिली?
ढिंढोरा शहर में इसका पिटना चाहिए।
महसूस मुझे मर्म होता है नहीं,
सिलसिला महफिलों में इस बात का रुकता नहीं।
जबकि मैं पत्थर हो कैसे गयी?
चर्चा फ़िज़ाओं में यह बहना चाहिए।
मैं बद्दजुबान हो गयी हूँ,
फुसफुसाहट दबी जुबान में इधर उधर हो रही है।
जबकि दुआएँ खो कैसे गयी?
हवाला चारों ओर इस बात का होना चाहिए।।
© चारु चौहान
Comments
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Nice
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