दोपहर का खाना बनाकर सोचा कमरें में थोड़ा सुस्ता लूं, प्रेग्नेंसी का चौथा महीना चल रहा था तो बड़ी थकावट रहती थी। आलम ये था कि दोपहर में तो लेटे नही कि नींद आ गयी और रात को आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं।
मैं सोऊं न इसलिये टीवी देखने लगी कि थोड़ी देर में पकौड़ों की भीनी-भीनी खुशबू मेरे नथुनों के अंदर जाकर मेरी लार ग्रंथियों को सक्रिय कर गयी और दिल में घंटियाँ और पेट में भूख के मारे नगाड़े बजने लगे।
अब आप कहेंगे कि पकौड़ों के नाम से पेट में नगाड़े बजना तो ठीक है पर दिल में घंटियाँ भी बजती हैं क्या, अरे भई! मेरा पहला प्यार है पकौड़े, तो खुशबू सूंघकर दिल में घंटियाँ बजने लगती है। "काश! कोई पकौड़े लाकर मुझे खिला देता तो कसम से हाथ चूम लेती उस शख्स के" मन में बस यही ख्याल आ रहा था।
शायद उस वक्त अगर मैं ताजमहल भी माँगती तो मिल ही जाता क्यूँकि कुछ ही मिनट में प्यारी सासू माँ प्लेट में पकौड़े लिये हाजिर थी। मन तो किया कि सचमुच झप्पी दे दूँ पर यह क्या प्लेट में कटोरी और उसमें सिर्फ दो पकौड़े! यह क्या बात हुयी भला! ऊँट के मुँह में जीरा।
जैसे ही पकौड़े का पहला निवाला मुँह में लिया," हम्म्म....! वाह...! जियो सासू माँ जियो" पलक झपकते ही पकौड़े सफ़ाचट। कुछ ही देर में मैं सासू माँ को खाना परोसने किचन में पहुँची, कैसरोल खोलकर पकौड़े देवता के दर्शन किये ही थे कि उनका निर्देश कानों पर पहुँचा, " नेहा!कैसरोल में जो पकौड़े रखे हैं वो रवि के लिये हैं" अब पकौड़े खाना तो दूर उसके बारे सोचना भी मुमकिन नही था।
...पर क्या करूँ? दिमाग तो नो नो कहता रहा पर दिल बोला ये दिल माँगे मोर। कहते है न कि दिल लेफ्ट में होता है पर ऑलवेज राईट होता है, तो बस मान ली दिल की बात। चार में से एक पकौड़ा उठाया और जल्दी से मुँह में ठूँस लिया और सासू माँ की थाली लेकर चल पड़ी।
माँजी ने पूछा,"पकौड़े कैसे लगे नेहा?" मैंने कहा, " अरे माँजी बहुत बढ़िया।"
"मैंने सोचा तुम्हारा मन करता होगा तो बना लिये, बेसन थोड़ा ही बचा था न तो थोड़े ही बना पायी" सासू माँ ने कहा।
"कोई बात नही माँजी" कहकर मैं वापस किचन में आयी और फिर कैसरोल खोला लेकिन वो तीसरा पकौड़ा मुझे मुँह चिढ़ाने लगा। जब कोई ऐसे खुली चुनौती दे तो क्या करेंं?
बहुत सोचा बहुत विचारा, पर समस्या का हल न निकला फिर मुझे बड़ों की सीख याद आयी जो मुझे रिश्ता होते ही सिखायी जाती रही कि बेटा पति-पत्नी के बीच कभी कोई दीवार नही आनी चाहिये। बस मैंने भी इसी सीख पर चलने का फैसला किया एक और पकौड़ा मुँह में ठूँस लिया, हाँ थोड़ा डर तो लगा था पर दिल ने कहा, डर के आगे जीत है।
अब आप सोच रहे होंगे कि बाकी दो बचे पकौड़ों का क्या हुआ???
वो सही सलामत रहे पतिदेव के लिये, दोपहर के खाने में उन्होंने खुशी-खुशी खाये और सासू माँ की खूब तारीफ भी की। सासू माँ ने मुझे भी तो दो पकौड़े दिये थे न! हिसाब बराबर, सोचते हुये मैं विजयी मुस्कान चेहरे पर लिये कमरे की ओर चल पड़ी।
निधि घर्ती भंडारी
हरिद्वार उत्तराखंड
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