आज उसकी ज़िंदगी का बेहद खास दिन था। मन की मुराद आखिरकार पूरी हुई। उसकी मेहनत व त्याग का फल सामने टेबल पर रखी ट्रॉफी के रूप में चमचमा रहा था मगर वह तो न जाने कहाँ खोयी हुई थी..!! शायद अतीत की यादें उसके मन को कचोट रही थीं। माँ ने कंधा पकड़कर झकझोरा तब जाकर वर्तमान का अहसास हुआ।
"हम जब से पार्टी से लौटे हैं, तुम काफी बुझी-बुझी सी लग रही हो, आखिर बात क्या है?"
"मैं ठीक हूँ माँ, मुझे क्या होगा?" गहरी सांस भरकर उसने कहा।
"सब समझ रही हूँ, अजय के परिवार को देखते ही तुम काफी असहज हो जाती हो लेकिन क्यों.. मेरी समझ से परे है " माँ उसका मन टटोल रही थी।
"नहीं माँ असहज नहीं लेकिन कुछ पुरानी यादें दुख दे जाती हैं..."
"पुरानी यादें....लेकिन उसने तुम्हें धोखा नहीं दिया सुरभि बल्कि ऐन मौके पर तुमने सगाई से इंकार कर दिया।"
"सही कह रही हो माँ लेकिन उस वक्त मेरा करियर बुलंदी पर था और मुझे गृहस्थी के दलदल में धंसना नहीं था" वह चीखते हुये बोली।
"फिर अब...अब पछतावा क्यों? तुम जो चाहती थी आखिरकार मिल ही गया न तुम्हें?"
"आदमी जितना ज्यादा ऊँचाइयों को छूने की कोशिश करता है, उतना ज्यादा अकेला होता जाता है माँ। तब नहीं जानती थी मैं कि एक दिन बिल्कुल अकेली रही जाऊँगी" रोते हुये उसने सिर घुटनों पर टिका दिया।
निधि घर्ती भंडारी
हरिद्वार उत्तराखंड
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
✍️🙏🏻
बेहतरीन लघुकथा
Thank u both kumar and ankita😍
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