अधूरा वजूद

एक ज़िंदगी को लीलता रूढिवादी समाज

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Nidhi Gharti Bhandari
Nidhi Gharti Bhandari 08 Jun, 2020 | 1 min read

बचपन से ही मुझे सजना-संवरना बहुत पसंद था। मैं अकसर माँ के माथे से बिंदी निकालकर अपने माथे पर लगा लिया करता था और माँ मुस्कुराते हुये मुझे निहारती थी। वक्त के साथ-साथ मेरे पुरुष शरीर के भीतर छुपी हुई स्त्री और अधिक बलवती हो रही थी। 

कई बार तो माँ की तरह बिंदी और लाली लगाकर, मैं दिनभर सारे मौहल्ले में घूमता रहता लेकिन घर वापस आते ही बाबा मुझे बहुत मारते थे। उन्हें मेरे चलने, बोलने हर एक चीज़ से परेशानी थी। 

बाबा का यह रूखा बर्ताव मुझे बहुत खलता था लेकिन माँ हमेशा कहती थी, "पढ़ लिखकर कुछ बन जाओगे तो बाबा की नाराज़गी भी दूर हो जायेगी।"

संगीत से लगाव तो मुझे माँ से ही विरासत में मिला था लेकिन मेरी वजह से बाबा उन पर भी रोकटोक किया करते थे। कत्थक सीखना चाहा लेकिन घर में सभी चाहते थे कि घर के बाकी मर्दों की तरह मैं भी आईएएस ऑफिसर बनूँ, मैं असहाय सा कभी अपने दिल की बात किसी के सामने रख ही नहीं पाया। 

सोचा था कि सब ठीक हो जायेगा, इसलिये मैं हमेशा खुद को सबके मुताबिक ढालने की कोशिश में लगा रहा। 

बाबा अकसर कहा करते थे, "लक्ष्य भेदना है तो मजबूत बनो, बिल्कुल अर्जुन की तरह। देखो कैसे सफलता नहीं मिलती!!!" यह सुनकर मेरे मन के अंदर बैठी स्त्री अंतस में धंसती चली जाती लेकिन वो कभी मिट नहीं पायी।

 आँख लगते ही लोगों से खचाखच भरे सभागार में मैं हमेशा एक स्त्री को अकेला खड़ा पाता। ठहाकों, तंज, फब्तियों और धुत्कार मिश्रित आवाज़ों के बीच वह चीखती, रोती, मछली की तरह तड़पती लेकिन उस कान फोड़ू शोर में उसकी आवाज़ बस दबती ही चली जाती।

घबराहट के मारे झटके से मेरी आँख खुल जाती और आधी रात को भी मैं किताबें खोलकर बैठ जाता। यह स्वप्न मुझे कभी अकेला छोड़ता ही कहाँ था....हर वक्त, हर जगह यह मेरा पीछा करता रहता था।

   आखिरकार आईएएस की परीक्षा में मैने फर्स्ट रैंक हासिल कर ही ली। आज बाबा और माँ दोनो बेहद खुश नज़र आ रहे थे। घर में जश्न के माहौल देखते हुये मैं भी बेहद खुश था, बस इसीलिये खुद पर काबू नहीं रख पाया और किन्नरों के साथ दिल खोलकर नाचा। आखिरकार मैने खुद के भीतर कैद स्त्री को मुक्त कर दिया।

 बाबा ने पहली बार मुझे अपने पास बैठाकर, अपने हाथों से खाना खिलाया और अचानक ही मैं मछली बिन पानी सरीखी तड़प महसूस करने लगा। मैने माँ की ओर देखकर पूछना चाहा कि तुमने तो कहा था सब ठीक हो जायेगा लेकिन मैं कुछ भी बोलने में असमर्थ था और माँ बेतहाशा रोये जा रही थी......मेरी आंखें धीरे धीरे बंद हो रही थी और सब समझ आ रहा था कि मेरे इस अधूरे वजूद के लिये इस घर, इस समाज में कभी जगह थी ही नहीं।

निधि घर्ती भंडारी

हरिद्वार उत्तराखंड


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