Day-03
आज तृतीय दिवस भी पापा के विषय में ही। आपको इस पोस्ट के अंत तक पिता व पुत्र के बीच कितना प्रेम था इस बात की जानकारी अवश्य प्राप्त हो जाएगी। चाहे पिता आपके हों अथवा मेरे, हर पिता अपने उर के कोने-कोने में संतान ख़ातिर असीमित प्रेम संजोकर कर रखते हैं यह अकाट्य सत्य है।
जो पिता गरीबी की मार स्वयं के तन पर सहन करते वह परिस्थिति से घबराते नहीं है, उन्हें मुश्किलें भी नहीं घबराती हैं। यह मैंने तब जाना जब मैं १० वर्ष का था। पापा कंपकपाती ठंड में भी ब्रह्ममुहूर्त में उठकर तैयार होकर कुर्ते में तीन-चार पेन डालकर जब पढ़ाने के लिए साइकिल से गाँव में घर-घर जाते थे मैं यह महसूस कर ही उस वक्त काँप जाता था। आखिर कौन चाहता है कंपकपाती ठंड में घर से बाहर सुबह सवेरे निकलना पर ज़िम्मेदारी बाँह खींचकर हमें ज़िंदगी के मैदान में ले जाती है संघर्ष हेतु। जब पापा सुबह में पढ़ाने के लिए जाते थे तो उस वक्त मैं बिछावन पर ही लेटा रहता था, पापा जाते-जाते इतना कहते बेटे! उठ जा! सुबह हो गई है। देर तक सोना,सोएं ही रहना सही नहीं। उस वक्त पापा का ऐसा कहना कुछ अच्छा नहीं लगता था। ऐसा लगता था कि पापा सही नहीं कह रहे हैं। पर आज की तारीख में सुबह उठने के लिए न तो एलार्म लगाता हूँ और न और न ही किसी को उठाने की ज़रुरत पड़ती है ब्रह्ममुहूर्त में आँखें स्वयं ख़ुल जाती हैं, व रत हो जाता हूँ कर्म करने हेतु उस वक्त से ही। सोने से पूर्व पापा की कही वे बातें स्मरण कर लेता हूँ मुझे सुबह उठने के लिए किसी के सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ती। पापा ने जाते-जाते भी यह गुण,सीख देकर मुझ पर बड़ा उपकार किया।
होम ट्यूशन जहाँ पापा पढ़ाने जाते थे, वहाँ उनको कुछ लोग अधिक मान व सम्मान देते थे। जब किसी के यहाँ बाहर से कोई मेहमान आए रहते थे या बच्चे के अभिभावक बहुत दिनों बाद शहर से घर आते थे तो मिठाईयां सह बिस्कुट भी लेकर आते थे। पापा जब पढ़ाने जाते तो उन्हें भी बच्चों के अभिभावक मिठाइयां खाने के लिए देते थे। पर उस वक्त पापा को फौरन हम तीनों भाईयों का चेहरा नज़र आ जाता था कि मैं यदि ये मिठाईयां खा लूंगा, तो मेरे बेटों के साथ ये नाइंसाफी हो जाएगी। मैं अच्छा खाऊं, ओर मेरे बेटे कुछ ख़ास नहीं ये नहीं हो सकता। पापा उन मिठाईयों को किसी पॉलिथीन में रखने के लिए अभिभावक को कह देते थे, और उसे घर पर लाकर हमें देते थे। उस वक्त मेरे चेहरे पर ख़ुशी की जो चमक रहती थी उसे देख पापा अधिक हर्षित होते थे। पापा का ऐसा करना,सचमुच वंदनीय था। सचमुच पिता को रब फुर्सत से बनाता है।
निष्कर्ष- जब बात औलाद की ख़ुशी को हो तो पिता अक्सर अपनी ख़ुशी को दफ़न कर देते हैं। और जब संतान के मुख पर मुस्कुराहट लानी हो तो पिता भूल जाते हैं कि मुश्किलों का आकार दोगुना है अथवा चौगुना।।
क्रमशः.......
©कुमार संदीप
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