निर्धन हूँ साहब!
है ख़्वाहिश मेरी भी
विद्यालय जाकर पढूं
गढूं सफलता के नव
आयाम पर
बंधा हूँ गरीबी की जंजीर से
निर्धन हूँ साहब !
बारिश की बूँदों को भी
खुशी का पैगाम समझता हूँ।
निर्धन हूँ साहब !
जब उड़ाता हूँ कागज़ की पतंग
उस वक्त
अपने आप को खुश कर
लेता हूँ की,उड़ रहा हूँ मैं भी
आसमां में
निर्धन हूँ साहब !
फटे कपड़े पहनकर भी
खुश रह लेता हूँ
है ख़्वाहिश कि
नयी पोशाक मैं भी पहनूं पर
ये मुमकिन हो कैसे?
निर्धन हूँ साहब !
जब भूख होती है तो
पी लेता हूँ दो घूँट नीर की
ताकि
कुछ समय तक भूख मिट सके
निर्धन हूँ साहब !
रहता हूँ खुले आसमां के नीचे
महफूज हमें भी ख़्वाहिश है कि
रहूं आलिशान बंगलों में
निर्धन हूँ साहब !
करवटें बदल-बदलकर
काटता हूँ रात
असहनीय दुःख से
हो ऐसी सुबह जो
बदले मेरे जीवन को
निर्धन हूँ साहब !
दुखों का अंबार लिए
चलता हूँ फिर भी
झूठी खुशी से
चेहरे पर मुस्कान
लाता हूँ कि
कोई भूखा न कहे
पागल न कहे
अशोभनीय नामों से
न पुकारे
©कुमार संदीप
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