धनतेरस की रौनक बस देखते ही बन रही थी। लेकिन बहुत ज्यादा भीड़ - भाड़ होने के कारण, कार को भी मार्किट में ले जाने की अनुमति नही थी। और तो और पार्किंग स्पेस भी पहले से, पूरा खचाखच भरा हुआ था। राधिका के पति अमर को कार, एक पास की कालोनी में, पार्क करना पड़ा। कार को पार्क कर दोनो पैदल ही बात करते हुए, मार्केट की तरफ चल दिये।
दोनो थोड़ी दूर चले, तो रास्ते में, खूब सारे रंग बिरंगे दीयों , सजावट का सामान, गुल्लक, और खिलौनों को देखकर राधिका का मन मचल गया। कितने प्यारे दिये है। इतनी कलरफुल मार्केट देख कर तो मज़ा आ गया। अमर, मुझे ये सब लेना है। राधिका चहक कर बोली।
हाँ ! जरूर ले लेना। लेकिन ये सब लेने के लिए एटीएम से रुपए निकलने पड़ेंगे । चलो आगे पहले, एटीएम देखते है और फिर लौटते वक्त ले लेना।
हाँ ! बात तो सही है। राधिका ने भी हामी भरते हुए कहा कि इस मार्किट में अधिकतर दुकानदार, कैश ही लेना चाहते है। मुझे सर्दियों के लिए स्वेटर भी लेना है।
अमर ने कहा सही याद दिलाया । मां के लिए भी एक स्वेटर लेना है।
तभी राधिका की नज़र पानी पूरी के ठेले पर पड़ी।
उसने अमर से फरमाइश की, तो दोनों पानी पूरी के ठेले पर रूक गए। दोनों पानी पूरी खा ही रहे थे कि तभी पीछे से कुछ मांगने वाली औरतो ने घेर लिया, और एक ही सुर में, सब बोलने लगी ।
बच्ची कुछ खाने को दो, सुबह से कुछ नही खाया। दे दो लाला, कुछ हमको भी दे दो।
अक्सर इस तरह की स्थिति में, मेरा और अमर दोनो की प्रतिक्रिया, हमेशा अलग - अलग होती है। मेरा पास अगर छुट्टा पैसा होता है, तो मैं दे देती और नही होता तो नही देती । खासकर टिप्पणी करने से जरुर बचती। लेकिन अमर को ऐसे मांगने वाले लोग, बिल्कुल न भाते। अमर केवल बुजुर्गों की ही मदद करते और बाकियों को फटकार लगा कर, भगा देते।
अमर को पानी पूरी अच्छी लगी तो एक और प्लेट बढ़ाने को बोल दिया।
माँगने वाली औरतो की आवाज़ अब भी कानो में आ रही थी।
खिला दो मालिक , तुम्हारा घर - बार अच्छा रहे । सुबह से नही खाया।
क्यों नही खाया हैं? दुकान यह हैं और तुम भी यही खड़ी हो। खा लो। किसने मना किया है?
अमर इतना बोल के, वहाँ से निकल गए और मैं भी उनके पीछे चल दी। आगे जाकर, अमर ने एटीएम से पैसे निकाले और हम दोनों ने मिलकर, अपनी जरूरत की, सारी खरीददारी की। शॉपिंग के बाद, बस अपनी कार तक पहुँचने के लिए वापस पैदल ही चलने लगे कि फिर एक माँगने वाली , उम्र से थोड़ी नौजवान लड़की , हम दोनों के पीछे लग गयी और फिर वही सिलसिला।
ओ दीया जलाने वाली , ओ मैडम, तुम्हारा सुहाग बना रहे । ओ घर को महल बनाने वाली ... ओ बाल बच्चों वाली, तुम्हारे बच्चे लंबा जिये और धन दौलत घर मे बनी रहे। हम दोनों सीधे कार की ओर, बिना पीछे देखे, चले जा रहे थे। अमर ने कार का लॉक खोला और मैं बस बैठने ही जा रही थी कि तभी उसने बोला ...
ओ चार पहिया वाली.. कुछ दे दोगी, तो कम पड़ जाये का....तेरा सुहाग...
चुप ...अब बस चुप ...कौन हैं तू ...राधिका ने उसे बीच में ही, डपटते हुए बोला । तू कौन होती हैं मेरा सुहाग अमर कराने वाली या मुझे बाल बच्चे देने वाली....कौन है तू , जिसकी दुआ से मुझे महल मिलने वाला हैं। रही बात , कुछ देने की तो मेरी मर्जी, मेरे पास होगा तो मैं दूंगी या मैं नही दूंगी। तू मेरी चिंता छोड़।
राधिका बस गुस्से में बोलती जा रही थी। और तू काम क्यों नही करती । काम न करना पड़े, इसलिये दस दुआएं रट ली, लोगो को देने के लिये। खुद को क्यों नही देती दुआ काम करने की, मेहनत करने की। तूने हम लोगो को, काम पे रखा हैं क्या की तेरी जरूरत पूरी करें।
अमर राधिका को चुप कराने की कोशिश कर रहा था पर असफल रहा।
और हाँ! ये लो दीये। इतनी ही हिम्मत है बोलने की, तो जा इन्हें बेच - बेच कर कमा और जो पैसे मिलेंगे उससे अपने घर में दीया जलाना और मिठाई खाना। दूसरों की किस्मत बदलने से पहले खुद की किस्मत बदल। फिर पता चलेगा कि बोलने से कुछ नही होता। मेहनत करनी पड़ती है।
इस बार की दीवाली अपनी मेहनत की कमाई से मना और फिर देखना कैसे ये दीये तुम्हारी जिंदगी को रोशन करते है।
इतना कह कर राधिका कार में बैठ गयी ।
अमर भी राधिका से आगे कुछ न कह पाया पर राधिका के चेहरे पर एक संतुष्ट भाव की झलक साफ - साफ देख पा रहा था।
.....
दोस्तो फिर मिलूंगी अगली बार एक नई सोच और कहानी के साथ। तब तक अपना खूब सारा ख्याल रखे।
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बहुत अच्छा लिखा लेकिन थोड़ा सा संपादित कर दें...कहीं पर मैं ,मेरा और कहीं पर राधिका, बाकी आप जैसा उचित समझें 😊
Oh..thank you dear...edit karti hu
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