मैं, एक पत्नी, एक माँ। लोग मुझे निर्भया की माँ के नाम से जानते है। कुछ याद आया, हाँ मैं वहीं हु उसी अभागन की माँ। कहते है वक़्त के साथ चीजे धुंधला जाती है पर वो दिन मैं कभी नही भूल सकती। हाँ वहीं मनहुस दिन जिसने मेरा जीवन बदल दिया। रात के दस बजने को थे लेकिन वो अभी तक घर नही आई थी। जब बात हुई थी तो बोली आधे घण्टें में आती हु पर बात हुए ही दो घण्टे होने को आये। मैंने उसे फ़ोन लगया पर फोन स्विच ऑफ बता रहा था। सोचा कुछ देर और इंतजार करती हूं। उस समय इंतजार के अलावा मेरे पास कोई रास्ता भी नही था। इतनी देर तो उसने कभी नही की थी। टिक टिक करके चलती घड़ी के बीच मेरी आँखें सिर्फ दरवाजे को ही तांक रही थी। एक अनचाहे डर से अब दिल घबराने लगा था। 12 बजने को थे नींद तो आंखों से कोसो दूर थी एक माँ की संतान देर तक घर न लौटे तो नींद आ भी कैसे सकती है। बुरे बुरे ख्याल से मन डर रहा था तभी एक अनजाने नंबर से मैं चौक पड़ी।
जब उसे उस हालत में देखा तो मेरा मन कराह उठा। कोई भी माँ अपनी संतान को इस हालत में देखना नही चाहेंगी लेकिन यह बदनसीबी मेरी ही किस्मत में लिखी थी। उन दरिंदो ने मेरी फूल सी बच्ची के सपनो को, उसकी खुशियों को, उसकी मासूमियत को, उसके जीवन को अपनी वासना के लिए हमेशा के लिए कुचल दिया था। कई दिनों तक मेरी बच्ची जिंदगी के लिए जंग लड़ती रही आखिर कब तक लड़ती। उसके मन पर बने घाव शरीर पर बने घावों से ज्यादा गहरे थे उसकी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। आखिर जीवन की जंग हार गई और मुझे छोड़ हमेशा के लिए चली गई।
जिस दिन इसके शरीर को मेरे सामने से ले जा रहे थे उस दिन मुझे वो दिन याद आ रहा था जब मैंने पहली बार उसे अपने आंचल में लिया था। अपने ऑपरेशन का सारा दर्द भूल गई थी जब उसने अपनी नन्ही उंगलियां मेरे गालो पर फेरी थी। अपने छोटे छोटे पैरों से जब वह छम छम करते हुए घर मे चलती थी तो घर का कोना कोना नाच उठता था। मन खुशी और आनंद से भर उठा था जब उसने पहली बार मुझे माँ कहा था। उसका भी एक सपना था डॉक्टर बनने का, लोगो की सेवा करना चाहती थी वह, दुसरो की सहायता करना चाहती थी वह। पर देखो आज कैसे चुपचाप शांत हो कर लेटी है। सुन न मेरी बच्ची एक बार माँ बोल दे कितने दिनों से तेरे मुँह से माँ नही सुना बड़बड़ाती जैसे पागल सी हो गई थी मैं। मगर अब बड़बड़ाने का भी कोई फायदा न था अब तो वह सुन ही नही सकती थी उसने आंखे सदा के लिए मूंद ली थी।
उस दिन मैंने तय कर लिया था उन दरिंदों को मैं यू आसानी से नही जाने दूँगी। मेरी बेटी भले अपने इंसाफ के लिए न लड़ पाई हो मगर मैं अपनी बच्ची को इंसाफ दिलाऊंगी। तब से लेकर आज तक मैं एक रात भी चैन से नही सोई हु। सबको पता था गुनाह हुआ है, सबको पता था किसने किया है पर उस गुनाह को साबित करने में इतने साल लग गए। मैंने इतने सालों में न जाने कितने अफसरों, कितने नेताओं, कितने मंत्रियों के दरवाजे खटखटाएं ये सिर्फ मैं ही जानती हूं। बेटी के इंसाफ़ के लिए मैं एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस, एक कोर्ट से दूसरे कोर्ट चक्कर लगाती रही। एक समय तो ऐसा आया जब रिश्तेदार और परिजन भी कहने लगे थे कि अब मुझे आशा छोड़ देनी चाहिए। गुनाह करना जितना आसान है इंसाफ मिलना उतना ही मुश्किल। लेकिन मैंने सोच लिया था कोई मेरा साथ दे या न दे "मैं काफ़ी हूँ" अपनी बच्ची को इंसाफ दिलाने के लिए, उसके लिए लड़ने के लिए। मैं हार मानने को तैयार नही थी। मेरी बच्ची भले जिंदगी से हिम्मत हार गई हो लेकिन एक माँ कभी हिम्मत नही हार सकती और मैं डटी रही। दिन महीने, महीने साल और साल आठ सालों में बदल गए आखिरकार आठ साल बाद मैं अपनी बच्ची को इंसाफ दिलाने में सफल रहीं। उन दरिंदो को फाँसी की सजा दी गई।
उनको फाँसी दिलवाने के साथ मैंने दुनिया को दिखा दिया की मैं काफी हु हर उस औरत की प्रेरणा बनने के लिए जो अपनी संतान को इंसाफ दिलाना चाहती है। एक माँ अपनी संतान का साथ कभी नही छोड़ती हमेशा उसके साथ खड़ी रहती है। एक माँ की मेहनत और संघर्ष के कारण ही उन दरिंदो को सजा दिला पाना संभव हो पाया।
सत्यता पर आधारित एक माँ के जज्बातों को बयां करती मेरी स्वरचित कहानी उम्मीद है आपको पसंद आएगी। मेरी रचना पर अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे। धन्यवाद
@बबिता कुशवाहा
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Nice 👍
So true!
Thankyou everyone
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