सोन साखली★
"पापा...पापा कल गार्डन में मेरी सहेलियों ने मुझे एक नई गेम सिखाई..."
व्यस्त क्षणों में गुड़िया के शब्दों को मेरे कानों तक का सफर तय करने से पहले ही मेरा दिमाग दांए-बाएं कर देता था और मेरी जुबान पर धर देता केवल लंबा-सा,
"हम्म..."
चंद हिसाबी पन्नों को उलझा-सुलझाकर अपने लैपटॉप से डिलीट करता हुआ मैं, गुड़िया के मुंह से उस खेल का नाम सुनकर चिंहुक उठा।
"...ता भी है?...गेम का नाम है...सोन साखली..."
अब मेरा दिलो-दिमाग गुड़िया के हर शब्द को सुनना चाहता था।
"पापा...देखो मैं आपको उस गेम के रूल्स बताती हूँ।"
शब्द-दर-शब्द वक्त पीछे की ओर दौड़ने लगा।
यह मेरे दिमाग द्वारा रचा हुआ समय स्खलन भी हो सकता है क्योंकि वक्त कभी पीछे की ओर नही मुड़ता बल्कि हमारे दिमाग में कैद यादें विगत की ओर मुड़ जाती हैं।
"...दाम देने वाला खिलाड़ी बाकी खिलाड़ियों को एक-एक करके छूता है और जिसे भी छू लेता है वह उस खिलाड़ी का हाथ पकड़कर चेन बनाता है। यह चेन तब तक बनती रहती है जब तक कोई एक विजेता खिलाड़ी आखिर तक उस चेन के खिलाड़ियों के छुए जाने से बच नही जाता..."
यादें एक-दूसरे का हाथ पकड़ती हुई 'सोन साखली' बनाने में जुट जाती हैं और मैं उसकी कड़ियों को पकड़कर पहुँच जाता हूँ अपनी किशोरावस्था में;
जहां रोज शाम पांच बजे बिना नागा मेरे घर के बाहर सायकल की घंटी के साथ एक खनकती हुई आवाज गूंजती थी।
"अक्... क्षय।"
और मैं अपनी सायकल लिए उस खनकती आवाज के साथ हो लेता था।
"आज फिर वही सोन साखली?"
हर बार मैं कोई सवाल पूछकर उसकी आँखों में देखता था तो उसकी आंखें पलकभर मेरी ओर देखती और फिर इधर-उधर जवाब खोजने में लग जाती थी।
"अक्षय...सोन साखली का मतलब?"
"मेरा सिर!...अरे वही खेल जो रोज हम उस मोटे विप्लव के घर के लॉन में खेलते हैं।"
"वह मुझे भी पता है...मीनिंग पूछ रही हूं... मिस्टर हिंदी मीडियम!"
"सोन साखळी... मराठी शब्द है, जिसका हिंदी अर्थ है 'सोने की जंजीर' या 'सुनहरी श्रृंखला'।" मैंने किसी हिंदी मास्तर की भांति समझाया।
"जी... गुरुजी धन्यवाद!" बोलकर वह हँसने लगी और साथ ही मैं भी खिलखिलाकर हँस दिया।
विप्लव का घर आ गया और हमने अपनी साइकलें बाहर ही छोड़ दी। हम चुनींदा दोस्त रोज शाम पांच बजे विप्लव के घर के लॉन में खेलने जाते थे और उन दिनों हमारा प्रिय खेल बना हुआ था 'सोन साखली'।
'अनु' मेरी खास दोस्त थी जो रोज शाम पांच बजे किसी अलार्म क्लॉक की तरह अपनी सायकल की घंटी ट्रिंग-ट्रिंग करती हुई मेरे घर के गेट तक पहुँच जाती थी। वैसे भी उसका घर मेरे घर से थोड़ी ही दूरी पर था।
हम दोनों अक्सर आपस में फ़िल्मी गानों की कैसेट्स, कॉमिक्स और पत्रिकाओं की अदला-बदली करते थे।
कभी-कभार इन अदला-बदलियों की वजह से हमारे बीच कुछ मज़ेदार संवादों का आदान-प्रदान भी हो जाता था।
अगर कभी उसके यह कहने पर,
" 'हम दोनों' की कैसेट दे।" हमारे बीच हँसी के फव्वारे छूटते,
तो कभी
" 'मेरी सहेली' 'पिंकी' वापस दे।" मेरे यह कहने पर अनु के साथ उसका छोटा भाई भी जोर से हँस देता।
हमारे साथियों ने हमें वीनस और मार्स की उपमा दे रखी थी।
किसी हद तक मैं इन दोनों नामों से मुत्तासिर भी था। अनु अगर रोमन देवी 'वीनस' की तरह खूबसूरत थी तो मैं देवता 'मार्स' की तरह झगड़ालू।
विप्लव के लॉन में मौजूद दोस्तों में से कोई भी दाम देने को तैयार न होता था क्योंकि सबको विजेता बनना होता था लेकिन मैं सहर्ष दाम देने को तैयार हो जाता।
मेरे इस निर्णय पर मेरे कई दोस्त मुझे लूजर कहकर टोकते थे लेकिन उस समय मेरे दिमाग में कुछ और ही पक रहा होता था।
मैं यह सोच रहा होता था कि अगर खेल में मैं सबसे पहले अनु को छू लूं तो चेन बनाने के लिए अनु को मेरा हाथ पकड़ना पड़ेगा और यह मेरे लिए एक अनोखा अहसास था जिसे पाने के लिए मैं विजेता बनने के सैकड़ों अवसर ठुकरा सकता था और हजारों बार खुशी-खुशी लूजर कहलवाना पसंद करता।
यही एक संवेदन था जिसको पाने के लिए मैं हर बार ऐसा खिलाड़ी बनना चुनता था जो इस खेल में कभी विजेता नही बन सकता और मैं हरबार कोशिश करता वह स्पर्श पाने की जिससे मेरे दिल की जलतरंग बज उठती थी।
जिस तरह वक्त के साथ कायनात के हर खेल का पर्दा गिरता है उसीतरह इस खेल का भी एक दिन समापन हो ही गया।
"पा...पा ...पापा! कहां खो गए?"
गुड़िया की आवाज मुझे उस समय स्खलन से वापस वर्तमान में ले आई।
"क... कहीं नही बेटा!" मैं अपनी उंगलियों से अपनी हथेली छूकर खोया हुआ अहसास ढूंढने की असफल कोशिश कर रहा था।
"पापा...आपका काम हो गया हो तो हम गार्डन चलें?" गुड़िया ने उत्साहित स्वर में पूछा।
गर्मियों की छुट्टियों की वजह से आस-पड़ोस के सारे बच्चे शाम को पास के गार्डन में जमा होते थे और उनके साथ खेलने के लिए गुड़िया वहां जाना चाहती थी।
कुछ देर बाद हम उस गार्डन में मौजूद थे जहां गुड़िया कल ही सीखी हुई गेम 'सोन साखली' कई बच्चों के साथ खेल रही थी और मैं पास की बेंच पर बैठकर उन बच्चों को खेलते हुए देख खुद के अंदर एक नई ऊर्जा महसूस कर रहा था।
एक बच्चा जोकी गुड़िया से चंद साल बड़ा था, बड़े ही उत्साह से इस खेल को न केवल सीखने की कोशिश कर रहा था बल्कि चपलता से खेल भी रहा था।
"अक्...क्षित" खनकती हुई आवाज सुनकर वह खेलता हुआ बच्चा और मैं दोनों ठिठक गए।
"अक्षित...मैं यहाँ इन अंकल के साथ बैठी हूँ।" मोहतरमा का इशारा मेरी ओर ही था।
"ओके... मम्मा!" अक्षित फिर खेलने में मग्न हो गया।
"अरे!... यह तो अपनी वाली गोल्डन चेन है न?
सालों पहले इस गेम में कोई लड़का मुझे जानबूझकर पहले आउट करने की कोशिश करता था।" जवाब खोजने वाली नजरें आज मेरी आँखों में झांककर सवाल पूछ रही थी।
सुनहरी जंजीर अपनी खोई हुई यादों की कड़ियां फिर एक बार जोड़ रही थी और मैं आश्चर्यचकित था।
"ऐ! अंग्रेजी मीडियम ... इसे 'सोन साखळी' बोलते हैं।"
इतना कहकर मैं खिलखिलाकर हँस दिया।
(स्वरचित, मौलिक एवं सत्य घटना से प्रेरित)
#Anil_Makariya
Jalgaon (Maharashtra)
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
फूलों पर गिरती पहली ओस की बूंद सदृश्य मासूम सी कहानी..💐🌹🙏🙏
हमने भी बहुत खेला है ये गेम !! हम लोग शायद जंजीर कहते थे । मजा आता था सब एक दूसरे का हाथ पकड़कर भागते थे !! प्यारी सी रचना .... 👏👏👏
सोन साखली👏👏👏बहुत प्यारी सी कहानी
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण..!अनेक पुरानी यादों को ताज़ा करती बहुत सुन्दर रचना..!! 👌👍
आपकी कहानी मुझे मेरे बचपन की ओर खींचकर ले गई ये खेल हम भी खेलते थे। सुंदर कहानी
bahut hi badiya
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