वृक्षो रक्षति रक्षितः

पंचमहाभूत अर्थात प्रकृति के प्रतिनिधि 'वृक्ष' ,की आप रक्षा करोगे तो 'वृक्ष' आपकी रक्षा करेगा।

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anil makariya
anil makariya 15 Jul, 2021 | 1 min read
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वृक्षो रक्षति रक्षितः ■


 हवा में उड़ता हुआ बीज आखिरकार अपनी जमीन तलाश ही लेता है। आकाश से बरसती अग्नि और जल का इस्तेमाल कर कुछ ही वक्त में विराट वृक्ष का रूप धारण कर लेता है।

धीरे-धीरे कुछ पक्षी अपना आशियाना इस वृक्ष पर बना लेते हैं और हर साल सैकडों नए सैलानी पक्षी पर्यटन हेतु वृक्ष पर आने लगते हैं। वृक्ष जैसे किसी संगीत की ताल पर दिनभर खुशी से डोलता रहता है।

खलिहानों के बीच में खड़ा वृक्ष यूं लगता है मानो पूरी प्रकृति का केंद्रबिंदु वही हो, उसी से सब जन्में हो और अंततः उसीमें सब विलीन हो जाएंगे।

एक सूफी दरवेश भटकता हुआ उस वृक्ष के समीप से गुजरता है। कुछ आगे चलता है फिर रुक जाता है, पीछे मुड़ता है और उस वृक्ष को देखता है और बुदबुदाता है।

"चारो तरफ केवल खलिहान ही खलिहान, खुदा ने जैसे केवल इसी दरख़्त को 'कुन फाया' का आदेश सुनाया हो।"

कोई रूहानी ताकत उस दरवेश को वृक्ष की ओर खींच ले जाती है।

दूर कहीं से आती हुई सरसराती हवा खलिहानों से गुजरकर एक स्वर का निर्माण करती है और उसमें जब वृक्ष पर बैठे पक्षियों का कलरव शामिल हो जाता है तो निकलता है, वह संगीत जिसे सूफियाना रिवायतों में खुदा से जुड़ने का माध्यम कहा गया है।

दरवेश अनायास ही अपने कंधे पर लदा हुआ झोला नीचे फेंक देता है और अपना सिर कंधे की ओर झुकाकर एक हाथ आसमान की ओर उठा देता है और

उस संगीत की लय पर हौले-हौले झूमने लगता है, जैसे मंदाकिनी का हर तारा, हर ग्रह या मंदाकिनी भी, अपने-अपने अक्ष पर परिवलन करते हैं ।

जिसे भीड़ में ढूंढते है, एकांत में ढूंढते है या फिर कई मील लंबी धार्मिक यात्राओं में ढूंढते हैं, वह रचयिता कई बार अपनी ही रचना में खोया हुआ मिलता है बिल्कुल उस ओस की भांति जो दिखती और महसूस होती हुई बारिश की बूंदों से ज्यादा खूबसूरत होती है लेकिन दिखती है तो केवल सूरज की पहली किरण के निकलने पर।

दरवेश ने अपनी जिंदगी का ठौर उस दरख़्त को मान लिया जिसके किसी भाईबंद की छाया में सिद्धार्थ नाम का राजकुमार 'बुद्ध' बन गया था।

एक भुजंग भी अच्छाइयों के साथ बुराइयों की तर्ज पर उस वृक्ष तले किसी खरगोश के बिल पर अपना कब्जा जमा लेता है। अब वृक्ष की जीवनयात्रा भी तीन युगों को पार कर कलियुग की ओर बढ़ चली है।

बाहरी दुनिया में जंगलों की बेतहाशा कटाई होती रही। तकनीकी ज्ञान के विकास ने रेडियो तरंगों का जाल बिछा दिया जिससे बाहरी पक्षियों के आने की तादाद तो कम हुई ही उस पर तुर्रा ये की प्रादेशिक पक्षियों की प्रजनन क्षमता पर भी रेडियो तरंगों का विपरीत असर पड़ा।

इसका असर अब वृक्ष के निवासी और प्रवासी पक्षियों पर भी पड़ने लगा है। इस भयंकर मनुष्य जनित आपदा की आमद के बारे में वृक्ष पूरी तरह अनजान है, जैसे इंसानों की करतूत से प्रकृति तब तक अनजान बनी रहती है जब तक हम इंसान इसे पूरी तरह तबाह नही कर चुके होते।

पक्षी अब बेहद कम अंडे देते हैं, जिससे बिल में रहने वाले विषधर को भोजन के लिए न चाहते हुए भी बिल से बाहर निकलकर पक्षियों के घोंसलों तक पंहुचना पड़ता है।

इस कसरत में वह विषधर एक-दो बार उस दरवेश के सामने नमूदार हो गया जिसे की अब तक उसकी उपस्थिति का भान नही था।

दरवेश को अब यह दरख़्त मौत का साया लगने लगा है जो कभी भी उसे अपने आगोश में ले सकता है।

दरवेश उस वृक्ष को अलविदा कहकर किसी और ठौर की तलाश में निकल पड़ता है।

अब उस स्थान से संगीत खत्म हो चुका है। सूर्य अपनी गर्मी से मानो सब राख करने पर तुला हुआ है। खलिहान अपना हरा रंग खोकर खुश्क पीले रंग में तब्दील हो चुके हैं। सरसराती हवाएं अब भांय-भांय करती लू में बदल चुकी है। कभी-कभार ही होने वाली पक्षियों की कलरव अब चहचहाना कम विलाप ज्यादा लगती है।

उदास वृक्ष को वह विषधर अब इन हालातों का जिम्मेदार लगने लगा है। 

प्रकृति कई बार उसके नियमों से बंधे अपने प्राणियों को कुछ ऐसी ताकतें या राहतें देती है जो केवल आपातकाल में ही इस्तेमाल की जा सकती हैं, विषधर के विषदंत भी उसी ताकत का नमूना हैं।

लेकिन प्रकृति ने ऐसी कोई ताकत या राहत पेड़-पौधों को नही दी है शायद प्रकृति को लगता है कि ऐसे जीव का कोई क्यों कुछ बिगाड़ना चाहेगा? जो सिर्फ देता ही देता हो और किसी की जान के लिए कोई खतरा न बनता हो मगर अब बिगाड़ने वाले पंहुच चुके हैं।

आरी और कुल्हाड़ी के साथ दो इंसान उस एकड़ों तक फैले खलिहान में खड़े इकलौते वृक्ष को काटने की तैयारी का रहे हैं।


छायां ददाति शशिचन्दनशीतलां यः सौगन्धवन्ति सुमनांसि मनोहराणि । स्वादूनि सुन्दरफलानि च पादपं तं छिन्दन्ति जाङ्गलजना अकृतज्ञता हा ॥


[ जो वृक्ष चंद्रकिरणों तथा चंदन के समान शीतल छाया प्रदान करता है। सुंदर एवं मन को मोहित करने वाले पुष्पों से वातावरण सुगंधमय बना देता है। आकर्षक तथा स्वादिष्ट फलों को मानवजाति पर न्यौछावर करता है। उस वृक्ष को जंगली असभ्य लोग काट डालते हैं। अहो! मनुष्य की यह कैसी अकृतज्ञता है? ]

 वृक्ष की जुबान तो नही होती पर उसकी वेदना का कंपन उसके साथी प्राणी बराबर महसूस करते हैं।

विषधर कंपन महसूस कर बिल के बाहर आया और प्रकृति की दी हुई ताकत का इस्तेमाल उसने अपने पालक की रक्षा करने में किया।

वृक्ष जान गया है कि विषधर ने संकट को केवल टाला है। 

वृक्ष अब भी उदास ही है।


#Anil_Makariya

Jalgaon (Maharashtra)


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anil makariya

Anil_Makariya

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • Sonnu Lamba · 3 years ago last edited 3 years ago

    बेहतरीन

  • Kumar Sandeep · 3 years ago last edited 3 years ago

    आपकी रचनाओं की सराहना शब्दों में नामुमकिन है

  • Jyotsana Singh · 3 years ago last edited 3 years ago

    तुम्हारी लेखनी सबसे अलग है।

  • anil makariya · 3 years ago last edited 3 years ago

    उत्साहवर्द्धन हेतु मैं आप सभी का आभारी हूँ 😊 धन्यवाद

  • Kamlesh Vajpeyi · 3 years ago last edited 3 years ago

    अत्यंत सुन्दर और भावपूर्ण रचना

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