कितना दबाव डाला था मैंने !
शायद किसी दाब यंत्र की भांति जो किसी उठाव को उठने से पहले अपनी ताकत से नीचे दबा देता है ।
अभी दसवीं में ही तो था वह और मैंने अपनी उम्मीदों का भारी गठ्ठर उसकी नाजुक गर्दन पर धर दिया था ।
आज उसकी अर्थी उसी दाब यंत्र और मेरी उम्मीदों के भार को एकत्रित कर मेरे कंधे को झुका रही थी ।
दसवीं में फेल होने की सजा उसने अपनी बोझिल गर्दन को दे दी ।
अभी अर्थी से कन्धा हटाया ही था कि मेरे सचिव की धीमी आवाज ने मेरी तंद्रा भंग की ।
"अभी-अभी राहुल बाबा के स्कूल से आपके लिए यह लिफाफा आया है"
लिफाफे पर तारीख की मोहर राहुल की मौत के ठीक एक दिन पहले की थी ।
मेरे चलते कदम शिथिल पड़ गए, कांपते हाथों से लिफाफा खोला ।
'हम माफ़ी चाहते है, किसी तकनीकी त्रुटि वश हमारी वेबसाइट पर राहुल नरेन्द्र बैसला का दसवीं परीक्षाफल गलत प्रसारित हो गया था।
हमें बताते हुए हर्ष हो रहा है कि परीक्षार्थी 'राहुल नरेन्द्र बैसला' ने प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण की है ।
शुभकामनाएँ ।सही परीक्षाफल निम्नलिखित है।....'
केवल कुछ पंक्तियाँ पढ़ते ही मुझ पिता का अपराध बोध अब कम हो चुका था --अब मेरी नजर में मेरे बेटे का कातिल स्कूल और उनकी तकनीकी खामी थी ।
मैं नहीं !
जैसे ही मैंने अर्थी को फिर कंधा दिया मुझे महसूस हुआ कि अर्थी का वजन अब पहले से ज्यादा है ।
मैं समझ गया--
'चार की जगह छह कंधे लगाने से भी शायद अपराध का वजन कम नहीं होता।'
#Anil_Makariya
Jalgaon (Maharashtra)
Comments
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उफ्फ उम्मीदों का बोझ बढ़ा घातक होता है। बेहद उम्दा लघुकथा और कथ्य भी बेहतरीन है।
उम्दा रचना
उत्कृष्ट लघुकथा
हद से आगे की उम्मीदें भी कातिल होती हैं😢
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