अनपढ़ माँ की कहानी ■
क्या हर बच्चे के साथ ऐसा ही होता है? क्या हर बच्चे के दिमाग पर कोई एक कहानी काबिज हो जाती है?
जैसे मेरे मन-मस्तिष्क पर उस कहानी ने अपनी जड़ें जमा ली, जो मैंने दादाजी की रद्दी में से ढूंढकर लायी किताब में पढ़ी थी।
ऐसा तो कतई नही है कि इस कहानी से पहले मैंने कोई कहानी पढ़ी ही नही थी तो फिर इस कहानी में ऐसा क्या था? की मैं सोते हुए जो सपना देखता या जागते हुए जो ख्याल बुनता इसी कहानी के इर्द-गिर्द मंडराता रहता, फिर मैं जुट जाता कहानी और अपने ख्यालों को अलग-अलग करने में। ख्यालों से कहानी को अलग करके उसे दूर कहीं जंगल में एक पेड़ के नीचे दफना देता और जुट जाता उन ख्यालों को करीने से लगाने में लेकिन आखिरकार उन ख्यालों का जो ताना-बाना तैयार होता उसका मरकज़ उसी कहानी का प्रेत निकलता जिसे मैं दफना आया था।
मैंने एकबारगी सोचा कि इस बाबत मैं अपनी माई से बात करूं मगर इस अबूझ बचपन में ही मैंने महसूस कर लिया कि शादीशुदा औरत की कोई कहानी नही होती।
जिज्ञासा मुझे वहीं लेकर गई जिनकी लायी हुई रद्दी से जिज्ञासा का उद्गम हुआ था।
मेरे दादाजी बेहद शांत और संजीदा किस्म के बुजुर्ग थे। वे जब बोलते तो केवल उन्हीं शब्दों का चयन करते थे जो बात जल्दी खत्म करने में सहायक हो और एक बार जवाब देने के बाद उसका कोई विश्लेषण या सफाई देने में अपनी सांसे खर्च न करनी पड़े। मैं कई बार सोचता कि शायद दादाजी, गुजरे दिन की बची हुई सांसे अगले दिन की सुबह शौच के वक्त शौचालय की खिड़की से निकलने वाले 'हाथी छाप बीड़ी' के धुंए वाले बादल बनाने में लगा देते होंगे।
"दादु क्या आपके दिमाग पर भी कभी कोई कहानी काबिज हुई है ?" मैंने भी सावधानी से शब्दों का चयन करते हुए अपना सवाल उछाला और बेहद बारीकी से दादा के चेहरे पर उतरते-चढ़ते भाव पढ़ने की कोशिश में लग गया ।
"हर हकीकत की इमारत, कल्पना की बुनियाद पर ही खड़ी होती है।" वही रहस्मयी शब्द जिसकी मैंने उम्मीद की थी दूर कहीं भूतकाल में देखती आंखों ने दादू को सुझाये थे।
"ऐसे नही दादू! बच्चों की जुबान में समझाओ।" इसबार मैंने शब्द चयन की सावधानी ताक में रखकर पोते वाले अधिकार का इस्तेमाल किया।
"तो फिर मेरे बच्चे, तू सवाल भी बच्चों की जुबान में ही पूछा कर।" मुस्कुराते हुए दादू कुछ थम गए और फिर वे बुदबुदाए।
"जा...अपनी माई से पूछ ले।"
मैं सोच में पड़ गया क्योंकि मुझे जो लगता था दादू का आदेश उसके बिल्कुल उलट था।
मेरी माई अनपढ़ थी पर ईश्वर ने उसे मन पढ़ने की अद्भुत काबिलियत दी थी।
"माँ ...ओ माँ! क्या तुमपर भी कोई कहानी काबिज हुई है?"
मैंने रसोईघर में पंहुचते ही माई के ऊपर भी वही सवाल दागा।
माई मुस्कुराई और डिब्बे में से आटा निकाल कर उथले बर्तन में डाला।
"अनपढ़ औरत की कोई कहानी ही नही होती मेरे बेटे।"
मेरी माई ने मेरी सोच पर प्रमाणित का ठप्पा मार दिया।
"मतलब की तुम्हारे पास मेरे ऊपर काबिज कहानी का कोई इलाज नहीं है ?"
मेरी आवाज में अब गर्व का पुट था।
"ऐसा तो मैंने नही कहा, चल आ...इधर बैठ मेरे पास।"
मेरी माँ के चेहरे पर मुस्कान पूर्ववत चस्पा थी।
मैं यंत्रवत माई के सामने बैठ गया। अब आटे वाला उथला बर्तन मेरे और मेरी माई के बीच में था ।
"इस आटे में अगर मैं पानी डालकर गूंधती हूँ और आंच पर सेंकती हूं तो क्या बनेगा?"
माई आटा गूंधती हुई बोली।
"रोटी।" मेरी सहज प्रतिक्रिया थी।
"और रोटी बनने से पहले ये क्या था ?"
माई की मुस्कुराहट अब रहस्मयी लग रही थी।
"आटा।" मैंने कुछ देर सोचकर फिर जवाब दिया।
"दुनिया केवल आटे औऱ उससे बनी रोटी को जानती है मतलब की कहानी और उसके अंजाम को..." अभी माई की बात पूरी भी न हुई थी।
"तुम भी दादू की तरह पहेलियां बुझाने लगी।" मैं बात बीच में काटकर बोला।
"बेहद आसान है समझना...अगर तेरी कहानी आटा है तो मेरा योगदान पानी और संघर्ष की आग पर तपकर तेरे भविष्य की जो रोटी तैयार होगी, लोग उस आटे और रोटी को याद रखेंगे लेकिन उस पानी को देख न पाएंगे जिसने आटे को रोटी में बदला और उसका अंश रोटी में तब भी मौजूद होगा।
इसलिये मेरे बच्चे पानी की अपनी कोई कहानी नही होती।"
माँ ने किस सवाल का जवाब दिया? मैं इसी उधेड़बुन में बाहर की ओर चल पड़ा।
"तुमने डॉक्टर की ही कहानी पढ़ी थी न?
याद रखना!...हर हकीकत की इमारत, कल्पना की बुनियाद पर ही खड़ी होती है।"
माई की आवाज रसोई घर से आई या मेरे जेहन में कौंधी? इस नए सवाल के साथ मैं आगे बढ़ गया।
#Anil_Makariya
Jalgaon (Maharashtra)
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Nice story
वाह! कहानी काबिज होना, और माँ का कहानी के निर्माण की कहानी को जिस तरीके से समझाना.. ऐसे तो कभी सोचा ही नहीं था 👌👌
खूबसूरत कहानी और उतनी ही खूबसूरती से लिखी गई है।
Please Login or Create a free account to comment.