आज वर्षों बाद बड़ी फुर्सत से
खुद को आईने में देखा।
आईने में बनी प्रतिबिंब से था अनजान मैं।
मैं बार-बार आईने में अपना प्रतिबिंब ढूंढता,
हर बार उस अनजान चेहरे का प्रतिबिंब
ही आईने में पाता।
खुद की प्रतिबिंब न पा कर हो गया
बहुत परेशान मैं।
फिर मुझे अहसास हुआ आईने में
बना प्रतिबिंब मुझे अपने
नजदीक बुला रहा हो।
मानो कहना चाह रहा हो।
क्यों खुद में इतने उलझे से हो?
अब थोड़ा ठहर भी जाओ।
कुछ पल तो खुद को दो।
क्या हमेशा अपनों के लिए जीना है?
अब पहचानो मुझे!
मैं उसे पहचानने की
जदोजहद करने लगा।
अपनी कंपकंपाती उंगलियों से उसके
मुलायम शल्क पर पड़ी झुर्रियों को,
महसूस करने लगा।
उस दिन मुझे अपनी कांपती उंगलियों
का भी अहसास हुआ।
फिर मैं उसके सफेद बाल से उसके
उम्र का हिसाब लगाने लगा।
उसके कुबड़ पीठ और झुका कंधा
उसके कर्तव्यों,जिम्मेदारियों और दायित्वों
का प्रमाण दे रहा था।
उसकी आँखें में अपनों से प्रेम
मिलने की आशा थी।
आँखों में आँसुओ का समंदर सूखा था।
मैं मुस्कुरा कर उसे अपना प्यार देना चाहा।
मैं चौका जिस प्रतिबिंब में मुझे
कुछ भी अपना सा न लगा।
उस प्रतिबिंब में मेरी मुस्कान
अपनी लगी।
मैं और गहराई से प्रतिबिंब को देखा।
खुद से अनजान वह मेरी
खुद की प्रतिबिंब थी।
मैं खुश हूँ क्योंकि आज भी
मेरे होठों की मुस्कान मेरे साथ है।
-आनंद
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