कहाँ मेल हमदोनो में।
तुम चाँद पूर्णिमा की
मैं रात अमावस का।
तुम बहती नदियों सी
मैं ठहरा किनारा सा।
तुम गीत महफ़िल की
मैं शोर चौराहे का।
तुम बहार बसंत की
मैं बिखड़ा पतझड़ सा।
तुम हँसी अल्हड़ सी
मैं भरा उदास मन सा।
तुम मिठास गुड़ की
मैं कड़वा नीम जैसा।
तुम सुबह अज़ान की
मैं पहर गोधूली सा।
तुम बड़े महलो की
मैं कूचे कस्बो का।
तुम खुली किताबो सी
मैं अधूरा खत जैसा।
तुम हिलोड़ समुंदर की
मैं शांत धारा सा।
तो फिर कहाँ मेल दोनो का।
तो फिर कहाँ मेल दोनो का।
Comments
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Waah
Shukriya vineeta ji
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