मैंने देखा
सूर्य अस्ताचलगामी हो रहा था
गगन में अपनी किरणें बिखेर
खग-पंछियों को सूचना दे रहा था
अपने प्रस्थान की
पहले उसकी किरणें थीं पीताभा लिए श्वेत
जो शनै-शनै पूर्ण पीत में ढल रहीं थीं
बीता एक घटिक और पीताभा
ढलने लगी स्वर्ण-सुनहरी किरणों में
स्वर्ण-सुनहरी किरणें बढ़ने लगीं शनै-शनै
अपने यौवन की ओर
और ढल गईं पूर्ण केसरिये में जो परिपक्व होते-होते बिखेरने लगीं सिंदूरी आभा
सिंदूरी आभा आ गई ये संदेश लेकर
सूर्य ढल गया क्षितिज से पूरा
शेष न रहा थोड़ा-सा भी
जहाँ तक जातीं ये किरणें
वहाँ तक ये संदेश पहुँचा देतीं
रूई के फाहे-से मेघ जो रहे थे आकाश में तैर
उन्होंने भर लीं शेष किरणें स्वयं में
ये सोचकर कि कहीं ये बिछुड़ न जाएँ
समेट लीं सारी अपने आँचल में
आशा अब यही रह गई थी उनके पास शेष
अब चर्चा आकाश के उस भाग की जहाँ ये निर्बल से मेघ भी थे अनुपस्थित
जहाँ था कोरा आकाश
मात्र गगन अकेला कर ही क्या लेता
सूर्य की रश्मियों को पकड़ ही क्या लेता
उसके पास तो था भी नहीं घन का ढाल
देखता रहा यूँ ही सूर्य को ढलते
हुआ दुःख उसे अपार अपनी विवशता पर
सजल हो गए नेत्र उसके
फलस्वरुप चमकने लगा
बिखेरने लगा तेज अपना
नीलाम्बर रूप में
परन्तु इन सबसे अनभिज्ञ मैं
टकटकी लगाये देखती रही गगन को
घटिक-घटिक बीते और साथ छूट गया
गगन का सूर्य से
मैंने देखा
पहले तो चमका आकाश
नीलाभा फैलायी
पर शनै-शनै उसका उजाला
परिवर्तित होता रहा अंधकार में
मैं
विस्मित-सी
व्यथित
रश्मियों के विदा लेने पर
हो जाती रही निराश
इस साँझ के यूँ जाने से
पर तमस्वामिनी निशा ये आती रही
और
ढलती रही ये साँझ.....
मौलिक एवं स्वरचित
@सर्वाधिकार सुरक्षित
~ अदिति वर्तिका मित्रा 'अवमि'
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.